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प्रस्तावना
दही आदि रस हैं। इनका परित्याग करना रसपरित्याग तप है ! वृक्षके मल में निवास, आतापन योग और पर्यंकासन आदिके द्वारा जीवका दमन करना कायक्लेश तप है । तथा विविक्त अर्थात् एकान्तमें उठना, बैठना व शयन करना विविक्तशय्यासन तप है । यह छह प्रकारका बाह्य तप है । यह बाह्य अर्थात् मार्गविमुख जनोंके भी ध्यान में आता है, इसलिए इसकी बाह्य तप संज्ञा है।
कृत अपराधके निराकरणके लिए जो अनुष्ठान किया जाता है उसकी प्रायश्चित संज्ञा है। यहांपर प्रायः शब्दका अर्थ लोक है और चित्तका अर्थ मन है। अत: चित्तका सशोधन करना ही प्रायश्चित है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वह प्रायश्चित आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धानके भेदसे दस प्रकारका है। इनमें से आलोचना गुरुकी साक्षीपूर्वक और प्रतिक्रमण गुरुके विना अल्प अपराध होनेपर किया जाता है । तदुभय स्पष्ट ही है । गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदिसे अलग करना विवेक है। तात्पय है कि जिस द्रव्य आदिके संयोगसे दोषोत्पत्तिकी सम्भावना हो उससे जुदा कर देना विवेक प्रायश्चित है। ध्यानपूर्वक नियत समयके लिए कायसे मोह छोडक र स्थित रहना व्युत्सग प्रायश्चित है। उपवास, आचाम्ल आदि करना तप प्रायश्चित हैं। विवक्षित समय तककी दीक्षाका छेद करना छेद प्रायश्चित है। पूरी दीक्षाका छेद करना मूल प्रायश्चित है। परिहार दो प्रकारका है- अनवस्थाप्य और पारंचिक । अनवस्थाप्यका जघन्य काल छह माह और उत्कृष्ट काल बारह वर्ष है । वह कायभूमिसे दूर रहकर विहार करता है, उसकी कोई प्रतिवन्दना नहीं करता, वह गुरुके साथ ही संभाषण कर सकता है । पारंचिक तपमें इतनी विशेषता है कि इसे जहां साधर्मी बन्धु नहीं होते ऐसे क्षेत्रमें आहारादिकी विधि सम्पन्न करते हुए निवास करना पडता है । यह दोनों प्रकारका प्रायश्चित राज्यविरुद्ध कार्य करनेपर दिया जाता है। मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर पुनः सद्धर्मको स्वीकार करना श्रद्धान नामका प्रायश्चित है ।
ज्ञानादिके भेदसे विनय पांच प्रकारका है। आचार्य आदिकी आपत्तिको दूर करना वैयावृत्त्य तप है । जिनागमके रहस्यका अध्ययन करना स्वाध्याय तप है। एकाग्न होकर अन्य चिन्ताका निरोध करना ध्यान तप है । कषायोंके साथ देहका त्याग करना कायोत्सर्ग तप है । यह छह प्रकारका अम्यन्तर तप है ।
यहां ध्यानका विस्तारसे वर्णन करते हुए ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यानका फल, इन चारोंका विस्तारसे विवेचन किया गया है। ध्यानके चार भदोंमेंसे धर्मध्यान अविरतसम्यग्दष्टि गुणस्थानसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक, और शुक्लध्यान उपशान्तमोह गुणस्थानसे होता है, यह बतलाया है। शुक्लध्यानके चार भेदोंमेंसे पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम ध्यान उपशान्तकषाय गुणस्थानमें मुख्य रूपसे होता है और कदाचित् एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान भी होता है । क्षीणमोह गुणस्थानमें एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान मुख्य रूपसे होता है और प्रारम्भमें पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान भी होता है।
क्रियाकर्म- इसमें आत्माधीन होकर गुरु, जिन और जिनालयकी तीन बार प्रदक्षिणा की जाती है। अथवा तीनों संध्याकालोंमें नमस्कारपूर्वक प्रदक्षिणा की जाती है, तीन बार भूमिपर
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