Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 19
________________ १०) प्रस्तावना किये हैं और प्रत्येक विभागकी तीन तीन भाषायें मानी हैं । वे छह विभाग ये हैं- कुरु लाढा मरहठा, मालव, गौड और मागध । इसी प्रकार शब्द एक स्थानपर उत्पन्न होकर अन्य प्रदेश में कैसे सुना जाता है, इस विषयका ऊहापोह करते हुए उन्होंने लिखा है कि शब्द जिस प्रदेशमें उत्पन्न होते हैं उनमेंसे बहुभाग तो वहीं रह जाते हैं और एक भाग प्रमाण शब्द उससे लगे हुए प्रदेश तक जाते हैं। इनमें भी बहभाग उस दूसरे प्रदेशमें रह जाते हैं और एक भाग प्रमाण शब्द आगेके प्रदेश तक जाते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर कम कम होते हए वे लोकके अन्त तक जाते हैं। समयके सम्बन्ध में विचार करते हुए उन्होंने दो समयसे लेकर अन्त हुर्त प्रमाण काल निर्धारित किया है । अर्थात इन शब्दोंको अपने उत्पत्तिस्थानसे लोकान्त तक जाने में कमसे कम दो समय लगते अधिकसे अधिक अन्तर्महतं काल लगता है। उन्होंने शब्द लोकान्त तक जाते हैं. इस विषयको स्पष्ट करते हुए कहा है कि वे उछल कर जाते है। इसलिए जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे ही उछल कर लोकान्त तक जाते हैं या तरंगक्रमसे वे आगे नये नये शब्दोंको उत्पन्न कर लोकान्त तक जाते हैं, यह विचारणीय है । वे शब्द सुने कैसे जाते हैं, इस विषयका स्पष्टीकरण करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि उत्पत्तिस्थानसे जो शब्द सीधमें सूने जाते हैं वे दो प्रकारसे सुने जाते हैं- परघातरूपसे और अपरघातरूपसे । यदि वे दूसरे पदार्थसे टकराये नहीं है तो बाणके समान सीधी गतिसे आकर जौर कर्णछिद्र में प्रविष्ट होकर सुने जाते हैं और यदि वे दूसरेसे टकराकर सुने जाते है तो पहले वे सीधमें किसी पदार्थसे टकराते हैं और तब फिर सीधको छोडकर अन्य दिशामें गति करते है पश्चात् वे फिरसे अन्य पदार्थसे टकराकर सीधमें आकर सुने जाते हैं। यह श्रेणिगत शब्दोंके सम्बन्धमें विचार हुआ। इनसे भिन्न उच्छेणिगत शब्द परघातसे ( टकराकर ) ही सुने जाते हैं। आभिनिबोधिकज्ञानावरणके प्रकरणको समाप्त करते हुए यहां अन्तमें आभिनिबोधिकज्ञान और अवग्रह आदिके पर्याय शब्द दिय गये हैं और उसे ' अण्णा परूवणा' कहा है। आभिनिबोधिकज्ञानके पर्यायवाची शब्द लिखते हुए कहा है कि संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये उसके पर्यायवाची नाम है। जहां तक विदित हआ है आगमिक परम्परामें प्रथम ज्ञानको आभिनिबोधिक ज्ञान ही कहा है और संज्ञा आदि उसके पर्यायवाची नाम कहे गय हैं। सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें आमिनिबोधिकज्ञान शब्दके स्थानमें मतिज्ञान शब्द दृष्टिगोचर होता है और उसके बाद तत्वार्थसत्रमें यह क्रम दिखाई देता है। श्वेताम्बर आगम साहित्यमें भी इन शब्दोंके प्रयोगमें व्यत्यय देखा जाता है। उदाहरणार्थ समवायांग व नंदीसूत्रमें आभिनिबोधिकज्ञान शब्दका प्रयोग हुआ है, किन्तु अन्यत्र व्यत्यय देखा जाता है। इससे स्पष्ट है कि य आभिनिबोधिक, मति और स्मृति आदि शब्द एक हों अर्थको कहते हैं व्युत्पत्ति भेदसे इनमें जो अथभंद किया जाता है वह ग्राह्य नहीं है । हा परोक्ष ज्ञानके भेदों में जो स्मृतिज्ञान, प्रत्यभिज्ञान और तर्कज्ञान ये भेद आते हैं वे अवश्य हो आभिनिबोधि कज्ञानसे भिन्न हैं और तर्कज्ञान ये भेद आते हैं वे अवश्य हो आमिनिबोधिकज्ञानसे भिन्न हैं और उनका समावेश मुख्यतया क्षुतज्ञानमें होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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