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विषय - परिचय
बैठकर नमस्कार किया जाता है । विधि यह है कि शुद्धमनसे और पादप्रक्षालन कर जिन भगवान् के आगे बैठना प्रथम नमस्कार है । फिर उठकर और प्रार्थना करके बैठना दूसरा नमस्कार है । पुनः उठकर और सामायिकदण्डक द्वारा आत्मशुद्धि करके कषाय और शरीरका उत्सर्ग करके जिन देवके अनन्त गुणोंका चिन्तवन करते हुए चौबीस तीर्थंकरोंकी वन्दना करके तथा जिन जिनालय और गुरुकी स्तुति करके बैठना तीसरा नमस्कार है । इस प्रकार एक क्रियाकर्म में तीन अवनति होती हैं । सब क्रियाकर्म चार नमस्कारोंको लिए हुए होता है । यथासामायिक के प्रारंभ में और अंतमें जिनदेवको नमस्कार करना तथा ' त्योस्सामि' दंडक के आदिमें और अंत में नमस्कार करना । इस प्रकार एक क्रियाकर्म में चार नमस्कार होते हैं । तथा प्रत्येक नमस्कार के प्रारंभ में मन, वचन और कायकी शुद्धिके ज्ञापन करने के लिए तीन आवर्त किये जाते हैं । सब आवर्त बारह होते हैं । यह क्रियाकर्म है । मूलाचार और प्राचीन अन्य साहित्यमें भी उपासना की यही विधि उपलब्ध होती है। यह साधु और श्रावक दोनोंके द्वारा अवश्यकरणीय है ।
भावकर्म - जिसे कर्मप्राभृतका ज्ञान है और उसका उपयोग है उसे भावकर्म कहते हैं । इस प्रकार कर्मके दस भेद हैं । उनमेंसे प्रकृतमें समवदानकर्मका प्रकरण है, क्योंकि, कर्म अनुयोगद्वार में विस्तारसे इसीका विवेचन किया गया है ।
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इसके आगे वीरसेन स्वामीने प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधः कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म; इन छह कर्मोंका सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अधिकारोंके द्वारा ओघ और आदेश से विवेचन किया है । यथा - ओघसे छहों कर्म हैं । आदेशसे नारकियों और देवों में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और क्रियाकर्म हैं । शेष नहीं हैं । तिर्यञ्चों में ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नहीं हैं, शेष चार हैं। मनुष्यों में छहों कर्म हैं । कारण स्पष्ट है । इसी प्रकार शेष मार्गणाओं में घटित कर लेना चाहिए । तात्पर्य इतना है कि प्रयोगकर्म तेरहवें गुणस्थान तक सब जीवोंके उपलब्ध होता है, क्योंकि यथासम्भव मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति अयोगी और सिद्ध जीवोंको छोड़कर सर्वत्र पायी जाती है । समवदानकर्म सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक सब जीवोंके होता है, क्योंकि यहां तक किसीके आठ, किसीके सात और किसीके छह प्रकारके कर्मोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है । अधःकर्म केवल औदारिकशरीरके आलम्बनसे होता है, इसलिए इसका सद्भाव मनुष्य और तिर्यञ्चोंके ही होता है । ईर्यापथकर्म उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली के होता है, इसलिए यह मनुष्योंके बतलाया गया हैं । क्रियाकर्म अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे होता है, अत: इसका सद्भाव चारों गतियों में कहा गया है । तपःकर्म प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे होता है, अतः इसके स्वामी मनुष्य ही हैं । यह चार गतिका विवेचन है । अन्य मार्गणाओं में इस विधिको जानकर घटित कर लेना चाहिए। तथा इसी विधि के अनुसार ओघ और आदेश से इनकी संख्या आदि भी जान लेनी चाहिए । इतनी विशेषता है कि संख्या आदि प्ररूपणाओं का विचार करते समय इन छह कर्मोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताकी अपेक्षा कथन किया है, इसलिए यहां इनकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका ज्ञान करा देना आवश्यक है ।
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