Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 14
________________ विषय-परिचय भेदसे सात प्रकारका है । यह तीनों प्रकारका प्रयोगकर्म यथासम्भव संसारी जीवोंके और सयोगी जिनके होता है। समवदानकर्म- जीव आठ प्रकारके, सात प्रकारके या छह प्रकारके कर्मोको ग्रहण करनेके लिए प्रवृत्त होता है; इसलिए यह सब समवदानकर्म हैं। समवदानका अर्थ विभाग करना हैं । जीव मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके निमित्तसे कर्मोंको ज्ञानावरणादिरूपसे आठ सात या छह भेद करके ग्रहण करता है, इसलिए इसे समवदानकर्म कहते हैं; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अध:कर्म- जीव अंगछेदन, परिताप और आरम्भ आदि नाना कार्य करता है । उसमें भी ये कार्य औदारिकशरीरके निमित्तसे होते हैं, इसलिए उसकी अध:कर्म संज्ञा है। यद्यपि नारकियोंके वैक्रियिकशरीरके द्वारा भी य कार्य देखे जाते है। पर वहां इनका फल जीववध नहीं दिखाई देता । इसीलिए औदारिकशरीरकी ही यह संज्ञा है। ईर्यापथकर्म- ईर्या अर्थात् केवल योगके निमित्तसे जो कर्म होता है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है । यह ग्यारहवेंसे लेकर तेरहवें गुणस्थान तक होता है, क्योंकि केवल योग इन्हीं गुणस्थानोंमें उपलब्ध होता है । यहां वीरसेन स्वामीने तीन पुरानी गाथाओंको उद्धृत कर ईर्यापथकर्मका अति सुन्दर विवेचन करते हुए लिखा है कि ईर्यापथकर्म अल्प है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म अल्प अर्थात् एक समय तक ही रुकते हैं । वह बादर है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्मपुदगल बहुत होते हैं। यहां यह कथन वेदनीय कर्मकी मुख्यतासे किया है। वह मृदु है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म कर्कश आदि गुणोंसे रहित होते हैं । वह रूक्ष है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म रूक्ष गुणयुक्त होते हैं ! वह शुक्ल है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म अन्य वर्णसे रहित एक मात्र शक्ल रूपको लिए हए होते हैं। वह मन्द्र है. क्योंकि वह सातारूप परिणामको लिए हुए होता है । वह महाव्ययवाला हैं, क्योंकि यहां असंख्यातगुणी निर्जरा देखी जाती है । वह सातारूप है, क्योंकि वहां भूख-प्यास आदिकी बाधा नहीं देखी जाती । वह गृहीत होकर भी अगृहीत है, बद्ध होकर भी अबद्ध है, स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट है, उदित होकर भी अनुदित है, वेदित होकर भी अवेदित है, निर्जरवाला होकर भी एक साथ निर्जरवाला नहीं है, और उदीरित होकर भी अनुदीरित है । कारणका निर्देश वीरसेन स्वामीने किया ही है । तपःकर्म- रत्नत्रयको प्रगट करने के लिये जो इच्छाओंका निरोध किया जाता है वह तप कहलाता है । इसके बारह भेद हैं । छह अभ्यन्तर तप और छह बाह्य तप । बाह्य तपोंमें पहला अनशन तप है । इसे अनेषण भी कहते हैं। विवक्षित दिन या कई दिन तक किसी प्रकारका आहार न लेना अनशन तप है । स्वाभाविक आहारसे कम आहार लेना अवमौदर्य तप है । सामान्यतः पुरुषका आहार ३२ ग्रासका और महिलाका आहार २८ ग्रासका माना गया है । एक ग्रास एक हजार चावल का होता है और इसी अनुपातसे यहां पुरुष और महिलाके ग्रासोंका विधान किया गया है । वैसे जो जिसका स्वाभाविक आहार है वह उसका आहार माना गया है और उससे न्यून आहार अवमोदर्य तप कहलाता है । भोजन, भाजन और घर आदिको वृत्ति कहते हैं और इसका परिसंख्यान करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है । क्षीर, गुड, घी, नमक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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