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ही करते थे। कुछ इतिहासज्ञों के मतानुसार मगध साम्राज्य तथा बौद्ध संप्रदाय के प्रभाव के कारण संस्कृत का प्रभाव कुछ काल तक सीमित सा हो गया था, परंतु पुष्यमित्र शुंग की राज्यक्रान्ति के बाद मौर्य साम्राज्य समाप्त होकर संस्कृत भाषा का महत्त्व फिर से यथापूर्व स्थापित हो गया। प्रायः 12 वीं सदी तक संस्कृत सभी हिंदु राज्यों की राजभाषा रही।
12 वीं सदी शताब्दी के बाद आज की हिंदी, गुजराती, बंगला, मराठी इत्यादि प्रादेशिक भाषाएं लोकप्रिय होती गईं। उनका अपना साहित्य निर्मित होने लगा। परंतु पाली, महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी इत्यादि के समान यह अर्वाचीन प्रादेशिक भाषाएं, संस्कृत के तद्भव और तत्सम शब्दों से उपजीवित और परिपोषित होती गई। पाश्चात्य साहित्य का परिचय और प्रभाव होने के पहले का सभी प्रादेशिक भाषाओं का संपूर्ण साहित्य संस्कृतोपजीवी ही रहा। संस्कृत भाषा में शास्त्रीय चिकित्सा करने की जो अद्भुत क्षमता है, उसके अभाव के कारण पाली-प्राकृत भाषा के अभिमानी धर्माचार्यों को यथावसर संस्कृत का ही प्रश्रय लेना पड़ा।
दक्षिण की तमिळ, मलयालम, कन्नड और तेलुगु ये चार भाषाएं भाषा वैज्ञानिकों के मतानुसार द्रविड परिवार की भाषाएं मानी जाती हैं। परंतु उन भाषाओं में संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रमाण उत्तर भारत की हिन्दी आदि प्रादेशिक भाषाओं के प्रायः बराबरी में है। किंबहुना कुछ मात्रा में अधिक भी है और उनका संपूर्ण साहित्य भी इस सुरभारती के स्तन्य पर ही परिपुष्ट हुआ है। यही एक कारण है कि, भारत में भाषाएं विविध हैं, परंतु उसका साहित्य एकात्म और एकरूप है। इस सनातन राष्ट्र के जीवन में इस महनीय भाषा के कारण ही सदियों से सांस्कृतिक सरूपता और एकात्मता रही है। आगे चल कर भी अगर इस राष्ट्र को अपनी भाषिक और सांस्कृतिक एकात्मता दृढ रखनी होगी, तो संस्कृत का सार्वत्रिक प्रचार करना पडेगा।
संस्कृत भाषा की अखिल भारतीयता प्राचीनता जैसे संस्कृत भाषा की अनोखी विशेषता है, वैसे ही उसकी वाङ्मय राशि की अखिल भारतीयता भी दूसरी विशेषता है। ई. 12 वीं शताब्दी से भारत के अन्यान्य प्रदेशों में विविध प्रादेशिक भाषाओं का धीरे धीरे विकास प्रारंभ हुआ। इन सभी प्रादेशिक भाषाओं का साहित्य निरपवाद संस्कृत साहित्योपजीवी रहा। संस्कृत का पौराणिक वाङ्मय, उस साहित्य का स्फूर्तिस्थान रहा। व्यास और वाल्मीकि की प्रतिभा ही मानों सभी प्रादेशिक आयामों की लेखनी से शत सहस्र प्रकारों में पल्लवित
और पुष्पित हुई। आधुनिक युग में पाश्चात्य साहित्य के संपर्क से प्रादेशिक साहित्य की वल्लरियां अन्यान्य दिशाओं और आर्यायों में उभर आयी। आज वे सारी अपने अपने प्रादेशिक राज्यों की राजभाषाएं हुई हैं। परंतु इतनी सारी प्रगति के बावजूद हिंदी, मराठी, बंगाली, गुजराती, तेलुगु, कन्नड, तमिल, मलयालम इन सारी प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य में, अखिल भारतीयता नहीं
आयी। कुछ अभिनन्दनीय अपवाद छोड कर, प्रायः सभी प्रादेशिक भाषाओं का सारा का सारा लेखक वर्ग सीमित प्रदेशस्थ ही रहा। याने मराठी का लेखक वर्ग महाराष्ट्र के बाहर, या कनड का लेखक वर्ग कर्नाटक के बाहर कहीं मिलता, न आगे चल कर मिलेगा। हिंदी भाषा को अखिल भारतीय भाषा के नाते शासकीय वैधानिक और विविध पक्षीय समर्थन प्राप्त होने पर भी, हिंदी का साहित्यिक वर्ग उत्तर भारतीय ही रहा है।
___भारत के सभी प्रादेशिक भाषाओं के साहित्यों को इतिहास ग्रंथ पढते समय उनकी सीमित प्रादेशिकता ठीक ध्यान में आती है। आज के भाषिक अभिनिवेश के युग की चाल देखते हुए यह साफ दिखाई देता है कि, हिंदी, बंगाली, मराठी, कन्नड इत्यादि भारत की विविध प्रादेशिक भाषाओं में से, किसी भी भाषा का प्रमुख लेखक वर्ग भविष्य काल में अखिल भारतीय नहीं होगा।
वाङ्मय के अन्तर्गत ललित और विविध शास्त्रीय वाङ्मय शाखा के इतिहास ग्रंथों का आलोचन करते हुए जो बात प्रमुखता से ध्यान में आती है, वह है उनके लेखकों की अखिल भारतीयता। काश्मीर से कन्याकुमारी तक और कामरूप से कच्छ तक, फैले हुए समग्र भारत वर्ष के अन्तर्गत सभी प्रदेशों में जन्म पाए हुए महामनीषियों की प्रतिभा एवं पाण्डित्य का अद्भुत वैभव इस भाषा के गद्य, पद्य और सूत्ररूप ग्रंथों में अपनी दिव्य दीप्ति से चमक रहा है।
संस्कृत वाङ्मय के सभी प्राचीन और अर्वाचीन लेखकों के सभी ग्रंथ अभी तक प्रकाशित नहीं हुए। फिर भी जितने प्रकाशित हुए हैं और उनमें से जितने परिमित ग्रंथों का परामर्श, संस्कृत वाङ्मय के इतिहास ग्रंथों में आज तक किया गया है, उनकी और उनके लेखकों की संख्या इतनी आश्चर्यकारक है, कि मानो संस्कृत वाङ्मय में अखिल भारतवर्ष का प्रज्ञावैभव अतिप्राचीन काल से आज तक संचित हुआ है। इसी कारण भारत की समस्त सुबुद्ध जनता के हृदय में संस्कृत भाषा के और संस्कृत भाषीय समग्र वाङ्मय के प्रति नितांत आत्मीयता और श्रद्धा है। जिस भाषा के और तन्दतर्गत वाङ्मय के प्रति संपूर्ण राष्ट्र की जनता श्रद्धायुक्त आत्मीयता रखती है वह भाषा और वह साहित्य उस समूचे राष्ट्र का “दैवी निधान" होता है। उसका संरक्षण अध्ययन और प्रसारण करना उस राष्ट्र के निष्ठावान सज्जनों का अनिवार्य कर्तव्य होता है। संस्कृत भाषा और संस्कृत वाङ्मय के प्रति अखिल भारतीय विद्यारसिकों का यही दायित्व है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 3
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