Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदिम आर्यभाषा इण्डोयूरोपीय परिवार की सभी भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने पर आधुनिक भाषा वैज्ञानिक इस सिद्धान्त पर पहुंचे कि इन विविध प्रदेशस्थ भाषाओं का मूल स्रोत कोई "आदिम भाषा" रही होगी। संस्कृत, अवेस्ती, ग्रीक और लॅटिन के सब से पुराने लेखों के शब्दों का मन्थन कर, जो सारभूत भाषास्वरूप उपलब्ध हुआ उस कल्पित भाषा को “आदिम भाषा" का बहुमान प्रदान किया गया। यह तथाकथित कल्पित आदिम आर्य भाषा, संस्कृत, अवेस्ती, ग्रीक, जर्मन, लॅटिन, केल्टी, स्लावी, बाल्टी, आर्मीनी, अल्चेनी, तोरखारी और हिट्टाइट इन सभी इण्डोयूरोपीय भाषाओं की जननी मानी गई। इस काल्पनिक आदिम भाषा का उपयोग करनेवाली आर्यजाति की भी कल्पना की गई और आर्यजाति का मूलस्थान यूरोप की पूर्व और एशिया की पश्चिम सीमा रेखा पर कहीं तो भी होना चाहिये, इस निर्णय पर पहुंचने पर, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी जैसे भारतीय भाषावैज्ञानिक, प्रो. बेंडेस्टाइन का मत प्रमाणभूत मान कर, उराल पर्वत का दक्षिणी प्रदेश ही आदिम आर्य जाति का मूल निवासस्थान मानते हैं। इस कल्पित, तथाकथित आदिम आर्यभाषा की सब से निकट भाषा संस्कृत ही मानी गई है। इस संस्कृत भाषा में संसार का प्राचीनतम वेदवाङ्मय भरपूर मात्रा में और अविकृत स्वरूप में, आज भी उपलब्ध होता है। समग्र मानवजाति के प्राचीनतम इतिहास के वाङ्मयीन प्रमाण, भारत की इस देववाणी में आज प्राप्त होते हैं। मानव समाज को जब तक अपने प्राचीनतम इतिहास के प्रति आस्था या जिज्ञासा रहेगी और जब तक ग्रंथालयों एवं संग्रहालयों में प्राचीनतम वाङ्मय एवं वस्तुओं का संग्रह करने की प्रेरणा मानव में रहेगी, तब तक संस्कृत भाषा में उपनिबद्ध प्राचीन वेदवाङ्मय को अग्रपूजा का स्थान देना ही होगा। भाषाविज्ञान के निष्कर्ष वैदिक वाङमय का भाषाशास्त्रीय अध्ययन करने पर आधुनिक भाषा पंडित इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि, वैदिक संहिताओं के सूक्तों में स्थान स्थान पर बोली के भेद दिखाई देते हैं। ऋग्वेद के प्रथम और दशम मंडल के सूक्तों की भाषा, अन्य मंडलों की भाषा की तुलना में, उत्तरकालीन दिखाई देती है। ब्राह्मणग्रंथों, प्राचीन उपनिषदों और सूत्र ग्रंथों की भाषा क्रमशः विकसित हुई मालूम होती है। पाणिनि के समय तक वैदिक वाङ्मय की भाषा और तत्कालीन शिष्टों की भाषा में पर्याप्त अंतर पड गया था। पाणिनि के पूर्ववर्ती पचीस श्रेष्ठ वैयाकरणों ने इस भाषा के शब्दों का बडी सूक्ष्मेक्षिका से अध्ययन किया था। पाणिनि के समय तक उत्तर भारत में उदीच्य, प्राच्य और मध्यदेशीय, तीन विभाग संस्कृत भाषान्तर्गत शब्दों में रूपान्तर होने के कारण हो गए थे। वैदिक संस्कृत और विदग्ध संस्कृत भाषा में प्रधानतया जो भेद निर्माण हुए उनका संक्षेपतः स्वरूप निम्नप्रकार है1 अनेक वैदिक शब्दों का लौकिक भाषा में अर्थान्तर हो गया। कुछ प्रत्यय, धातु, सर्वनाम वैदिक और लौकिक संस्कृत में विभिन्न हो गए। वैदिक संस्कृत में क्रिया से दूर रहने वाले उपसर्ग, लौकिक भाषा में क्रिया के पूर्व रूढ हुए। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन तीन स्वरों के कारण वैदिक संस्कृत में जो संगीतात्मकता थी, वह लौकिक भाषा में उन स्वरों का विलय होने से, लुप्त हो गई। वैदिक में कर्ता और क्रियापद के वचन में भिन्नता थी। लौकिक भाषा में वहां एकता आयी। यही बात विशेषण और विशेष्य के संबंध में हुई। वैदिक भाषा में केवल वर्णिक छंद मिलते हैं किन्तु लौकिक संस्कृत में वर्णिक और मात्रिक दोनों प्रकार के छंद मिलते हैं। अनुष्टुप् के अतिरिक्त कुछ वैदिक छंद लौकिक संस्कृत में लुप्त हो गए। 2 संस्कृत और एकात्मता संस्कृत भाषा के (ओर समस्त संसार के) सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण भगवान् पाणिनि हुए। उन्होंने अपने शब्दानुशासन द्वारा संस्कृत भाषा को विकृति से अलिप्त रखा। लौकिक व्यवहार में, लोगों की शुद्धवर्णोच्चार करने की अक्षमता के कारण, अथवा वर्णोच्चार में मुखसुख की प्रवृत्ति के कारण, संस्कृत से अपभ्रंशात्मक प्राकृत भाषाएं भारत के विभिन्न भागों में उदित और यथाक्रम विकसित होती गईं। परंतु पाणिनीय व्याकरण के निरपवाद प्रामाण्य के कारण संस्कृत भाषा का स्वरूप निरंतर अविकृत रहा। संसार की भाषाओं के इतिहास में यह एक परम आश्चर्य है। पणिनीय व्याकरण के प्रभाव के कारण "अमरभाषा" यह संस्कृत भाषा का अपरनाम चरितार्थ हो गया। पाणिनि के समय में शिष्ट समाज के परस्पर विचार-विनिमय की भाषा संस्कृत ही थी। उनके बाद भी कई सदियाँ तक यह काम संस्कृत भाषा करती रही। श्रीशंकराचार्य जैसे प्राचीन विद्वान अपना सैद्धान्तिक दिग्विजय संस्कृत भाषा में शास्त्रार्थ कर 2 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only

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