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. संधि जैन इतिहास । वीकार नहीं किया !+ वह तो लोकोदामें निम्त थे-उनका ध्येय मेकको जसाद निकालकर बात्मवादी बनाना था। 'भागवत-कार' का यह कथन जैन तीर्थकरके लिये सर्वथा उपयुक्त है । इसीलिये ही 'भागवत' में श्री ऋषभदेवको श्रद्धापूर्वक निनकार नमस्कार किया है
"निरन्तर विषय-भागोंकी अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक मेषसे चिरकाल तक मुध हुए लोगोंको जिन्होंने कारणवश निर्मक मात्मलोकका उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होनेवाले मात्मस्वरूपको प्राप्तिसे सब प्रकारकी तृष्णाओंसे मुक्त थे, उन भगवान् समदवको नमस्कार हो।"x -(भागवत ५-७-१९)
निम्मन्दह भ० ऋषभदेव द्वारा ही पहले-पहले योगचर्या और नात्मबादका उपदेश दिया गया था। उनसे पहले हुये सात अवतारोंमेंसे क्सिीन भी उनके द्वाग निर्दिष्ट निःश्रयममार्गका उपदेश नहीं दिया था। पहले भवताकी महत्ता ब्रह्मचर्य धारण करने में बताई गई है। दूसा बामह भातार सातसमें गई पृथ्वीका उद्धार कानेके लिए प्रसिद्ध है। नारद ऋषि तीसरे भतार थे. जो मरने तंत्रवादके लिए प्रसिद्ध थे। ग-नागपणका चौथा गमनार संयमी जीवन के लिए पसिद्ध हुमा। पांच कपिक भवता द्वारा सांस्पमतके निरूपणका उल्लेख है।
नाम भी ऋषभ भगवानसे पहिले ही मरीचि ऋषिद्वारा मांख्य सदृशः मतका प्रकाश हुमा बतलाते है। भागवतमें भी मरीचि नादि ऋषिबोका बल्लेख है। उनसे ना विश्वका समुचित विस्तार नहीं हुमा तक
तार हुए । • नरें ऋषभावतार भी मानता है। छठे + पूर्व० पृ. ४५५ । - माण'-भानवताक, पृ. ४१७ ॥ • स्पाण-भागवताक पृ• २८.,