Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 122
________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था जैनधर्म। [१.. कार्य करने में नमसर रहे थे। चौदहवीं शताबिके मध्यसे. पन्द्रहम शताधिके प्रथम पाद तक ही जैन धर्मका उत्कर्ष खूपही हुमा। रामा और प्रना-सही नैन धर्मके पाचार-विचारोंमें रंगे हुये और बैन नियमोंको पालने में गर्व करते थे। वे धार्मिक जीवन बिताने के साथ ही मन्त समयमें धर्म विधिपूर्वक ही अपनी ऐहिक की समाप्त करते थे। जैन गुरु निरन्तर पायक संघको धर्म पाने के लिए सावधान करते रहते थे। भनेक प्रायकोंकी निधिका नाम भी भावचिनाइकी धार्मिकताको पगट करती है । सन् १३५३ ई. में श्री रामचन्द्र महधारिदेयके शिष्य कामगौड़ने समाविमरण पंचनमस्कार मंत्रकी माराधना करते हुये किया था। उनके धर्मावरणका प्रभाव बनता पर इतना अधिक था कि उसने स्वयं उनकी स्मृतिको स्थिर रखने के लिये निषधिका बनवाई थी। स्न १३५४ में जब मगोडने समाधिमरण किया तो उनकी पनी चेनकने उनके वियोगमें सहगमन' किया। चन्दगोरके छोटे भाई सिद्धांतदेव गुरुके शिष्य थे। सन् १३६६ में उनोंने भी सन्यास लेकर वर्गगमन किया था। से कार पक्षन वर्षों तक सन्यासमरण करना भावरिनाडके गौड़ प्रभुमोमें एक माननीय गया ही बी। बालिनाडके महामुोंने ती यं या बाद बनताके समक्ष उपस्थित किया था। भागफिनाइके महापभूदगोरके पुत्र वेचिगौर नाचार्य श्री रामचंद्र मापारिदेके शिष्य थे। अपने गुरुके पचपदर्शनमें धर्म नियमों का पान करते थे। गन्न समय मोने गुरुनानासे नमस्कार मंत्रका स्मरण करते हुये सन् २००६ में समाधिमण किया था। इस मी -पनी

Loading...

Page Navigation
1 ... 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171