Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 156
________________ तत्कालीन जैन साहित्य र कला । [ १३९ था। उनकी रामराजगुरू, समंतकाचार्य, माहादवादीश्वर उपाधियों उनकी विद्वता और महताको स्पष्ट करती हैं। वह अपनेगोका के मठाधीश थे। इन्होंने अपनी यह रचना गंगवंश के राजकुमार देवराज के अनुशे से शक संवत् १३२१ के पश्चात् स्त्री थी, 'प्रमेशखमाका 1 ''पार्श्वाभ्युदयटोका' नादि कई टोका अंब भी उन्होंने रथे थे।' कविवर विजययणका 'शृंगारार्णव चंद्रिका' नामक अलंकार शास्त्र मी इस समयकी उल्लेखनीय रचना है। इसको उन्होंने सन् १२६४ के कगभग कामराय बंग नरेशकी प्रार्थनापत्र रचा था। इस प्रकार भनेक अन्य जैन विद्वानोंने संस्कृत साहित्यको अपनी सत्कृतियोंसे समकंकृत किया था जिनका इतिहास लिखा जाना बोहनीय है । कमड़-साहित्य और जैन कविगण | विजयनगर सम्राटोंके शासन काढमें भी कमड़ साहित्यको सात बनाने में जैन कवियोंने ब्ल्लेखनीय भाग किया था। जैनधर्म और कथा साहित्य के अतिरिक्त उन्होंने सर्वसाधारणोपयोगी साहित्यकी मी रचना की थी। किंतु विजयनगर साम्राज्योंमें स्मार्त और पौराणिक हिन्दु धर्मका प्रारूप होनेके कारण जैन कविगण उससे अछूने नहीं रहे थे। जो बातें जैनधर्म के अन्दर नहीं मिली थीं उनको भी इस समय बैसे ही अपनाया गया, जैसे कि भावकक कुछ अज्ञ जैनकवि कर्तृत्वबादकी गंध अपनी रचनाओंमें कूटकर भर देते हैं। यह समयका माय है। विवक्षणही नक्नेको इस प्रभावसे सुरक्षित रख पाते हैं। केशिका (सन् १९१७) स्वयं बैग में उनके पुत्र मल्लिकार्जुन Alat-p-48, 10:26. ·

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