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८] मक्षित जैन इतिहास । हीमित मानते हैं। और करते हैं कि वैदिक अनुश्रुतिकी व्याख्या पुणों और काव्यों के माधारसे कहना उचित है।' पुमणोंमें ऋषभदेवका वर्णन ठीक वैसा ही है नैपा अन शास्त्रों में मिस्ता है। बतएव युक्त वेमंत्रके ऋमदको जैन तीर्थकर मानना उपयुक ही है। श्री विरुपाय डि जे वैदिक विद्वान और श्री स्टीवेन्सन साश्चात्य द्वि न भीक माहित्यमें प्रयुक्त ऋषम नामको जनताका ही बोधक मानने हैं। अत: यह मान्यता ठीक है कि उन धर्मके मंधापक ऋषभदेव हीका उल्लेख वैदिक माहित्यमें हुमा । उनक मानिरिक्त किसी दूसरे ऋषभदेवका पता किसी भी अन्य श्रोतसे नहीं चलना ! पन्युन बौद्ध माहिस्यमे भी जैन धर्मके मादि संस्था क ऋदेव ही प्रमाणत होते हैं।
१-मावनुकणिक (लंदन) पृ. १६४ । २-असा इंडिया भूमिका। ३-जैन पश्यदर्शा, भाग ३ अंक ३ पृष्ठ १०६.
l'rof. Slevenzon remarket: )! is seldom that Juinas and Brahmanas nice, that I do not cer, how we can teluve them credit in this instance, where they rosu'
-Kalpisutra, Introduction p. XVI. ४-न्यायविन्दु अ. ३ एवं मञ्जुश्री मस्का में भा जैनधमक आदि मन् पुरुषरूपमें ऋषभसका उल्लेग्व इस प्रकार हमा है:"कपिक मुनिनाम ऋषिवरो, निग्रन्थ-सीकर ऋषभः निग्रन्धरूपिः।"
-भार्य-जुधी-मूलाल्प (बिन्दन) पृष्ठ ४५. इस उलेखके सम्बन्धमें जमन प्रो. ग्लॉसनॉपने विचन करते हुये लिया था कि बौदोंने लोकका संकेतमय चित्र उपस्थित करते हुये एक मंडसमें एकमतके महान संस्थापकको मुगया नहीं था।
("......Buddhists could not omit the great propbet of a religion which...... had acquired glory all over India. -Prof Helmuth von Glassenapp ). J As, III, p. 47. :