Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद की परिकल्पना करनी पड़ी। ब्रह्म को सामने रखकर विश्व के मूलस्रोत की और माया को सामने रखकर उसके विस्तार की व्याख्या की गई । सांख्य-दर्शन ने द्वैत के आधार पर विश्व की व्याख्या की। उसके अनुसार पुरुष चेतन और प्रकृति अचेतन है। दोनों वास्तविक तत्त्व है। विश्व की व्याख्या के ये दो मुख्य कोण है-अद्वैत और द्वैत । जो दार्शनिक विश्व के मूलस्रोत की खोज में चले, वे चलते-चलते चेतन तत्त्व तक पहुंचे और उन्होंने चेतन तत्त्व को विश्व के मूलस्रोत के रूप में प्रतिष्ठित किया। जिन दार्शनिकों को विश्व के मूलस्रोत की खोज वास्तविक नहीं लगी, उन्होंने उसके परिवर्तनों की खोज की और उन्होंने चेतन और अचेतन की स्वतंत्र सत्ता की स्थापना की। प्रत्येक दर्शन अपनी - अपनी धारा में चलता रहा और तर्क के अविरल प्रवाह से उसे विकसित करता रहा । इसका परिणाम यह हुआ कि दार्शनिक जगत में शान्ति का अभाव सा हो गया । पारस्परिक विरोध ही दर्शन का मूल था । हमें यह सोचना चाहिए कि सभी वाद एक दूसरे के विरोधी है, इसका कारण क्या है ? विचार करने पर मालूम पडता है कि इस विरोध के मूल में मिथ्या आग्रह है । यही आग्रह एकान्त आग्रह कहा जाता है।
__ कोई महात्मा, पंडित, ज्ञानी व चिंतक आज अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर यदि एक नये सत्य या सिद्धांत का अनुसंधान कर पाता है तो वह सत्य उस क्षेत्र में उस काल में स्वीकार्य हो सकता है; परंतु वही अंतिम सत्य नहीं है।
भगवान् महावीरने यह देखा कि जितने भी मत, पक्ष या दर्शन हैं वे अपना एक खास पक्ष स्थापित करते हैं और विपक्षका निरास करते हैं । भगवान् ने उन सभी तत्कालीन दार्शनिकों की दृष्टिओं को समझनेका प्रयत्न किया। और उनको प्रतीत हुआ कि नाना मनुष्यों के वस्तु दर्शनमें जो भेद हो जाता है उसका कारण केवल वस्तुकी अनेकरूपता या अनेकान्तात्मकता ही नहीं बल्कि नाना मनुष्यों के देखने के प्रकारकी अनेकता या नानारूपता भी कारण है । इसीलिये उन्होंने सभी मतोंकों, दर्शनोंको वस्तुरूपके दर्शनमें योग्य स्थान दिया है। किसी मतविशेष का सर्वथा निरास नहीं किया है। निरास यदि किया है तो इस अर्थमें कि जो एकान्त आग्रहका विष था, अपने ही पक्षको, अपने ही मत या दर्शनको