Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

Previous | Next

Page 60
________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद हिमालय ऐसा है । चारों चित्रों में असमानता थी । प्रत्येक पर्वतारोही अपने चित्र को सही बता रहा था। दर्शक लोग उलझन में पड गए। आखिर एक व्यक्ति ने सबकी उलझन समाप्त करते हुए बताया की ये चारों चित्र हिमालय के हैं। चूँकि ये भिन्न-भिन्न स्थानों से लिए गए हैं, इसलिए इनमें भिन्नता स्वाभाविक है । अमुक स्थान पर खडे होने से जो दृश्य दिखाई देता है, वह दूसरे स्थान से दृष्टिगोचर नहीं हो सकता । दृष्टिकोण की भिन्नता से तथ्यों में भिन्नता आ जाती है । आप चारों व्यक्ति सही हैं। चारों के चित्र हिमालय के चित्र हैं पर इनके साथ स्थान विशेष की विवक्षा जोड़नी होगी । ४४ उपर्युक्त उदाहरण स्याद्वाद का बोध कराने में सहायक है । एक वस्तु को हम भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखेंगे तो उसके स्वरूप में अन्तर निश्चित रहेगा। इस अन्तर को समझने के लिए उन-उन दृष्टियों को समझना आवश्यक है और यही स्याद्वाद है । जैन दर्शन में इसका स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है । 1 वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, इसलिए विसदृश भी है और सदृश भी है। एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से विसदृश होता है, इसलिए कि उनके गुण समान नहीं होते । वे दोनों सदृश भी होते हैं, इसलिए कि उनके अनेक गुण समान भी होते हैं । चेतन गुण की दृष्टि से जीव पुद्गल से भिन्न है तो अस्तित्व और प्रमेयत्व गुण की अपेक्षा वह पुद्गल से अभिन्न भी है । कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थ से न सर्वथा भिन्न है, और न सर्वथा अभिन्न, किन्तु भिन्नाभिन्न है । वह विशेष गुण की दृष्टि से भिन्न है और सामान्य गुण कि दृष्टि से अभिन्न । भगवती सूत्र हमें बताता है "जीव पुद्गल भी है और पुद्गली भी है । शरीर आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी है । शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है, सचित भी है और अचित भी है।" जीव की पुद्गल संज्ञा है, इसलिए वह पुद्गल है । वह पौद्गलिक इन्द्रिय सहित है, पुद्गल का उपभोक्ता है, इसलिए पुद्गली है; अथवा जीव और पुद्गल में निमित्तनैमित्तिक भाव है । संसारी दशा में जीव के निमित्त से पुद्गल की परिणति होती है और पुद्गल के निमित्त से जीव की परिणति

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124