Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 58
________________ ४२ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद I साहित्य का अनुशीलन करते समय करते हैं, तब ज्ञात होता है कि एक आत्मा के संबंध में ही किस प्रकार की विभिन्न धारणाएँ उस युग में थी । आत्मा के संबंध में इस प्रकार के विभिन्न विकल्प उस समय प्रचलित थे - आत्मा है भी, नहीं भी, नित्य भी, अनित्य भी, कर्ता भी और अकर्ता भी - आदि आदि । भगवान् महावीर ने अपनी अनेकान्तमयी और अहिंसामयी दृष्टि से अपने युग के विभिन्न वादों का समन्वय करने का सफल प्रयत्न किया था । भगवान् महावीर ने कहा स्व-स्वरूप से आत्मा है, पर स्वरूप से आत्मा नहीं है । द्रव्यदृष्टि से आत्मा नित्य है, और पर्यावदृष्टि से आत्मा अनित्य है । द्रव्य-दृष्टि से आत्मा अकर्ता है और पर्याय दृष्टि से आत्मा कर्ता भी है। वस्तुतः वस्तु-स्वरूप के प्रतिपादन की यह उदार दृष्टि ही अनेकान्तवाद है । अनेकान्त दृष्टि का और अनेकान्तवाद का जंब हम भाषा के माध्यम से कथन करते हैं तब उस भाषाप्रयोग को स्याद्वाद और सप्तभंगी कहा जाता है । अनेकान्तवाद का आधार है, सप्तनय । और सप्तनय का आधार है सप्तभंग एंव सप्तविकल्प | भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद की भाषा का आविष्कार करके दार्शनिक जगत की विषमता को दूर करने का प्रयत्न किया था । यही कारण है कि भगवान् महावीर की यह अहिंसामूलक अनेकान्त दृष्टि और अहिंसामूलक सप्तभंगी जैन दर्शन की आधार - शिला है । भगवान् महावीर के पश्चात् विभिन्न युगों में होनेवाले जैन आचार्यों ने समय-समय पर अनेकान्तवाद और स्याद्वाद की युगानुकूल व्याख्या करके उसे पल्लवित और पुष्पित किया है । इस क्षेत्र में सबसे अधिक और सबसे पहले अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को विशद रूप देने का प्रयत्न आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने तथा आचार्य समन्तभद्र ने किया था । उक्त दोनों आचार्यों ने अपने-अपने युग में उपस्थित होनेवाले समग्र दार्शनिक प्रश्नों का समाधान करने का प्रयत्न किया । आचार्य सिद्धसेन ने अपने " सन्मतितर्क" नामक ग्रंथ में सनयों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है । जबकि आचार्य समन्तभद्र ने अपने " आप्तमीमांसा" ग्रंथ में सप्तभंगी का सूक्ष्म विश्लेषण और विवेचन किया है. मध्य युग में इसी कार्य को आचार्य हरिभद्र और आचार्य अकलंकदेव ने आगे बढाया । नव्यन्याययुग में वाचक यशोविजयजी ने अनेकान्तवाद और स्याद्वाद पर नव्यन्याय - शैली में तर्क- ग्रंथ लिखकर दोनों सिद्धांतो को अजेय बनाने का सफल प्रयत्न किया है। भगवान महावीर से प्राप्तPage Navigation
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