Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 84
________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद ६८ लोक क्या है ? प्रस्तुतमें लोकसे भ. महावीरका क्या अभिप्राय है यह भी जानना जरुरी है । उसके लिये प्रश्नोंत्तर देखिये, भग० १३.४.४८१ 1 अर्थात् पाँच अस्तिकाय ही लोक है । पाँच अस्तिकाय ये हैं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्रलास्तिकाय । - जीव- शरीरका भेदाभेद । जीव और शरीरका भेद है या अभेद इस प्रश्नको भी भ. बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा है । इस विषयमें भगवान् महावीरके मन्तव्यको भग० १३.७.९५. पर के संवादसे जाना जा सकता है । उपर्युक्त संवाद से स्पष्ट है कि भ. महावीरने गौतमके प्रश्नंके उत्तरमें आत्माको शरीरसे अभिन्न भी कहा है और उससे भिन्न भी कहा है। ऐसा कहनेपर और दो प्रश्न उपस्थित होते हैं कि यदि शरीर आत्मा से अभिन्न है तो आत्माकी तरह वह अरूप भी होना चाहिए और सचेतन भी । इन प्रश्नोंका उत्तर भी स्पष्टरूपसे दिया गया है कि काय अर्थात् शरीर रूपि भी है और अरूपि भी। शरीर सचेतन भी है और अचेतन भी । जब शरीरको आत्मासे पृथक् माना जाता है तब वह रूपि और अचेतन है । और जब शरीर को आत्मासे अभिन्न माना जाता है तब शरीर अरूपि और सचेतन है । 1 भगवान् बुद्धके मतसे यदि शरीरको आत्मासे भिन्न माना जाय तब ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं । और यदि अभिन्न मानाजाय तब भी - ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं । अत एव इन दोनों अन्तों को छोड़कर भगवान बुद्धने मध्य मार्गका उपदेश दिया और शरीरके भेदाभेदके प्रश्नको अव्याकृत बताया- संयुक्त XII १३५ । किन्तु भगवान् महावीरने इस विषय में मध्यममार्ग-अनेकान्तवादका आश्रय लेकर उपर्युक्त दोनों विरोधी वादोंका समन्वय किया । यदि आत्मा शरीरसे अत्यन्त भिन्न माना जाय तब कायकृत कर्मों का फल उसे नहीं मिलनाPage Navigation
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