Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 96
________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद षट् दरसण जिन अंग भणीजे । न्याय षडंग जो साधे रे । नमिजिनवरना चरण उपासक । षट् दर्शन आराधे रे ॥ १ जिनसुर पादप पाय वखाणुं । सांख्यजोग दोय भेदें रे।। आतम सत्ता विवरण करता । लहो दुग अंग अखेदें रे । २ भेद अभेद सुगत मीमांसक । जिनवर दोय कर भारी रे । . लोकालोक अवलंबन भजिये । गुरुगमथी अवधारी रे ॥ ३ लोकायतिक कूख जिनवरनी । अंशविचार जो कीजे । तत्त्वविचार सुधारस धारा । गुरुगम विण केम पीजे ॥ ४ जैन जिनेश्वर उत्तम अंग । अंतरंग बहिरंगे रे। अक्षरन्यास धरा आराधक । आराधे धरी संगे रे ॥ ५ निस्सन्देह एकता में विविधता और विविधता में एकता का दर्शन करके जैन आचार्यों ने स्याद्वाद् का प्रतिपादन करके विश्व को महान सेवा अर्पण की पादटीप १. नासदासीन्न सदासीतदानीम् - इत्यादि । -ऋग्वेद १०-१२९-१ . २. यन्नैज्जति तदे जति...-उपनिषद् ३. एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ॥ - ऋग्वेद १/१६४/८६, पृ. ३२० । ४. सदेव सौम्येदमग्र आसीत् -छान्दोग्योपनिषत् ६/२ .. ५. प्रकृतिस्तु की पुरुषस्तु पुष्करपलाश वनिर्लेपः। ६. प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहंकार.....पंचेभ्य: पंचभूतानि - सांख्य तत्त्वकौमुदी । ७. न प्रकृतिः न विकृतिः पुरुष :। ८. निर्विशेषं ही सामान्यं भवेच्छागविषाणवत् त सामान्यरहित्वेन विशेषास्तद्वेदेव हि। -कुमारिल - मीमांसा श्लोक वार्तिक ९. सत् चित् आनन्दमय ब्रह्म । १०. ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापर। ११. जन्माद्य ब्रह्मस्य यतः - ब्रह्मसूत्र । १२. यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् – चार्वाक् दर्शनPage Navigation
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