Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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९४ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद और अनेक दोनों हैं और एक और अनेक दोनों से परे हैं ।"
यहां एक ही देवी मां में एक ही समय में एकत्व, अनेकत्व तथा इन दोनों से परत्व बतलाया है। यह स्पष्ट अनेकान्तवाद की दिशा है।
अब स्वामी विवेकानन्द को लें । इनके भी चिन्तन एवं विचारों में अनेकान्त की समानधर्मी धारा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है । डॉ. मिश्रा लिखते हैं -
"एक सच्चे वेदान्ती की भांति विवेकानन्द ने ब्रह्म और जीव की एकता को भी स्वीकार किया है। वे मानते हैं कि हमारी आत्मा भोक्ता व कर्ता के रूप में ब्रह्म से तादात्म्य नहीं रखती, किन्तु सार रूप में जीव ब्रह्म ही है।"
इस कथन में स्वामी विवेकानंद ने अपेक्षाभेद या अवच्छेदक भेद से जीव को ब्रह्म से भिन्न एवं अभिन्न दोनों बतलाया है। सामान्यतया जीव एवं ब्रह्म एक हैं, लेकिन कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व की अपेक्षा से भिन्न भी हैं । यहां स्पष्ट अनेकान्त का प्रभाव है। .. श्री खीन्द्रनाथ टैगोर के विचारों का अवलोकन करिए । श्री मीश्रा. लिखते हैं -
"माया की अवधारणा शंकर और टैगोर कुछ भिन्न प्रकार से करते हैं। शंकर का कहना था कि माया न सत् है, और न असत् । टैगोर कहते हैं कि माया है और नहीं भी है। यह सिद्धान्त वल्लभ प्रतिपादित माया से अधिक साम्य रखता है। ससीमता और अनेकता का अनुभव होने के कारण माया का अस्तित्व मानना पडता है। अनन्त सत्ता की अखंडता का बोध हो जाने पर माया विलीन हो जाती है । इसलिए कहा जाता है कि वह नहीं है ।"१०
उपर्युक्त कथन में श्री टैगोर ने माया का अस्तित्व एवं नास्तित्व दोनों बतलायें हैं और उनमें कारण हैं - अपेक्षाभेद । यह स्पष्ट अनेकान्त दृष्टि से प्रतिपादित किया हुआ प्रतीत होता है।
अब महात्मा गांधी के विचारों को लीजिए । वे लिखते हैं -
"उनके लिए वह एक है और अनेक हैं । अणु से भी छटा और हिमालय से भी बड़ा है। वह जल के एक बिन्दु में समा सकता है और सात