Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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सप्तम प्रकरण
अनेकान्तवाद : प्रमुख दार्शनिकों की आलोचनाओं का निराकरण
जैन दर्शन ने दर्शन शब्द की काल्पनिक व्याख्याओं से ऊपर उठकर तत्त्वचिन्तन के क्षेत्र में बद्धमूल एकान्तिक धारणाओं का उन्मूलन करने एवं वस्तु के यथार्थ स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद की भाषा दी है । इस देन में उसका यही उद्देश्य रहा है कि विश्व अपने वास्तविक स्वरूप को समझे कि उसका प्रत्येक चेतन और जड़ तत्त्व अनंतधर्मो का भण्डार है । प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण, पर्याय और धर्मों का पिण्ड है । वह अपनी अनादि-अ द- अनन्त संतान- स्थिति की दृष्टि से नित्य है । कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब विश्व के रंगमंच से एक ऋण का भी समूल विनाश हो जाये या उसकी संतति सर्वथा उच्छिन्न हो जाये । साथ ही उसके पर्याय प्रतिक्षण बदल रहे हैं । उसके गुणधर्मो में सदृश या विसदृश परिवर्तन हो रहा है, अत: यह अनित्य भी । इसी तरह अनन्त गुण शक्ति, पर्याय और धर्म प्रत्येक वस्तुकी निजी संपत्ति है, लेकिन हमारा स्वल्प ज्ञान इनमें से एक-एक अंश को विषय करके क्षुद्र मतवादों की सृष्टि कर रहा है ।
स्याद्वाद के उक्त दृष्टिकोण को नहीं समझकर और वस्तु को यथार्थ दृष्टिकोण से देखने का प्रयास न कर अनेक भारतीय दार्शनिकों ने अपने एकांगिक चिन्तन के आधार पर स्याद्वाद सिद्धान्त की आलोचना एवं उस पर दोषारोपण करने का प्रयास किया है ।
कोई वस्तु है भी, और नहीं भी है- यह कथन अन्य दर्शनकारों को हृदयंगम नहीं होता । किसी भी वस्तु में अस्तित्व के साथ नास्तित्व को भी धर्म रूप से बताना ऊपरी सतह वाले मानसिक धरातल पर जमता नहीं है। अस्तित्व और नास्तित्व परस्पर विरूद्ध धर्म दिखते हैं । विरोधी धर्म एकसाथ एक वस्तु में कैसे रह सकते हैं ? इस तर्क के साथ अन्य तर्क भी अनेकान्त के विरोध में प्रतीत होने लगते हैं । यही कारण है कि अन्य दर्शनकारों को अनेकान्तवाद सदोष मालूम पड़ा और उन्होंने इसमें तर्क द्वारा कई दोष उद्भावित किये हैं ।
सर्वप्रथम हम आचार्य धर्मकीर्ति को लेते हैं । ये विद्वान बौद्ध आचार्य
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