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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद
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ही, किन्तु खरा अपेक्षायुक्त निश्चयवाद है ।
प्रो. फणिभूषण अधिकारी ने स्पष्ट लिखा है । " जैन धर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया, उतना अन्य किसी भी सिद्धान्त को नहीं। यहाँ तक कि वैदिक आचार्य शंकराचार्य भी दोषमुक्त नहीं है । उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया है । यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सकती थी किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार हो तो मैं भारत के इस महान विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रंथों की परवाह नहीं की ।"
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पाश्चात्य विद्वान डो. थामस का कहना है- " " स्याद्वाद सिद्धान्त बडा गम्भीर है । यह वस्तु की भिन्न-भिन्न स्थितियों में अच्छा प्रकाश डालता है I स्याद्वाद का अमर सिद्धान्त दार्शनिक जगत् में बहुत ऊँचा सिद्धान्त माना गया है । वस्तुतः स्याद्वाद सत्य ज्ञान की कुंजी है । दार्शनिक क्षेत्र में स्याद्वाद को सम्राट का रूप दिया गया है। स्यात् शब्द को एक प्रहरी के रूप में स्वीकार करना चाहिए जो उच्चरित धर्म को इधर-उधर नहीं जाने देता है। यह अविवक्षित धर्म का संरक्षक है, संशयादि शत्रुओं का संरोधक व विभिन्न दार्शनिकों का संपोषक है ।"
विद्वानों के अभिमतों को उपस्थित करने के बाद अब शंकराचार्य के कथन के बारे में स्याद्वाद का दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हूँ
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वस्तु अनेकान्त रूप है, उसमें अनेक धर्म अपेक्षा - पूर्वक अविरोध रूप से रहते हैं, यह समझने की बात नहीं है। एक ही पदार्थ अपेक्षाभेद से परस्पर विरोधी अनेक धर्मो का आधार होता है । जैसे कि एक ही व्यक्ति अपेक्षाओं के भेद से पिता भी है, पुत्र भी है, गुरु भी है, शिष्य भी है, ज्येष्ट भी है, कनिष्ठ भी है, इसी तरह और भी अनेक उपाधिभेद अपनी-अपनी अपेक्षाओं से उसमें विद्यमान हैं । यही बात प्रत्येक वस्तु के बारे में भी समझनी चाहिए कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि विभिन्न अपेक्षाओं से उसमें अनन्त धर्म संभव हैं। केवल अपनी इच्छा से यह कह देना कि जो पिता है, वह पुत्र कैसे ? जो ज्येष्ठ है, वह कनिष्ठ कैसे ? जो गुरु है, वह शिष्य कैसे ? आदि प्रतितिसिद्ध और प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले स्वरूप का अपलाप ही माना जायेगा । अपनी एकांगी दृष्टिसे
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