Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 103
________________ अनेकान्तवाद : प्रमुख दार्शनिकों की आलोचनाओं का निराकरण ८७ कुछ भी मान लिया जाये अथवा कह दिया जाये, किन्तु वस्तु में विद्यमान उन प्रतीतिसिद्ध धर्मो का अपलाप नहीं किया जा सकता है, उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता है। __ अब उक्त दृष्टांतो के प्रकाश में हम स्याद्वाद के कथन की परीक्षा करें। स्याद्वाद में परस्पर, विरुद्ध दो धर्मों को एक पदार्थ में मानने का कारण यह है कि उसमें एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य से विलक्षण तीसरा ही पक्ष स्वीकार किया गया है । क्योंकि स्याद्वाद में प्रत्येक वस्तु किसी अपेक्षा से नित्य और किसी अपेक्षा से अनित्य स्वीकार की गई है। यह नित्यानित्य रूप सब लोगों के अनुभव में आता है। जैन दर्शन में सात तत्त्वों का जो स्वरूप है, उनका उस स्वरूप से ही तो अस्तित्व है, किन्तु भिन्न स्वरूप से तो उनका नास्तित्व ही है। यदि जिस रूप से उनका अस्तित्व कहा जाता है, उसी रूप से नास्तित्व कहा जाये तो विरोध या असंगति हो सकती थी । स्त्री जिसकी पत्नी है, उसी की माता कही जाये तो विपरीत बात हो सकती है। ब्रह्म का जो स्वरूप नित्य, एक और व्यापक बताया जाता है उसी रूप से तो ब्रह्म का अस्तित्व माना जा सकता है, अनित्य, अनेक और अव्यापक रूप से तो नहीं । हम यहां एक प्रश्न पूछते हैं कि बह्म का नित्यादि रूप से जिस प्रकार अस्तित्व है, क्या उसी प्रकार अनित्य आदि रूप से भी उसका अस्तित्व है ? यदि ऐसा ही माना जाये तो क्या ब्रह्म का स्वरूप समझने योग्य रह जाता है ? और फिर क्या वह समझ लिया जायेगा? यदि नहीं, तो ब्रह्म नित्यादि रूप से सत् है और अनित्यादि रूप से असत् है, इस प्रकार वह अनेक-धर्मात्मक सिद्ध हो जाता है, वैसे ही जगत् के समस्त पदार्थ इस त्रिकालबाधित स्वरूप से व्याप्त हैं। प्रमाता और प्रमिति आदि के जो स्वरूप हैं, उनकी दृष्टि से ही तो उनका अस्तित्व होगा । अन्य स्वरूपों से उनका अस्तित्व कैसे हो सकता है? अन्यथा स्वरूपों में संकरता होने से जगत् की व्यवस्था का ही लोप हो जायेगा। सामान्यजन असमंजस में पड जायेंगे कि हम प्रमाता किसे कहें, प्रमिति क्या है और प्रमाण का लक्ष्य क्या है ? ___पंचास्तिकाय की संख्या पांच है; वार, तीन या दो नहीं, इसमें क्या विरोध है ? यदि यह कहा जाता है कि "पंवास्तिकाय पांच हैं, और पांच नहीं

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