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अनेकान्तवाद : प्रमुख दार्शनिकों की आलोचनाओं का निराकरण ८९ प्रश्न का उत्तर अपेक्षाभेद से निश्चित उत्तर देते थे। वे न तो बुद्ध की तरह अव्याकृत कहकर यल देते थे, और न संजय की तरह अनिश्चय का बहाना बनाते थे । जो लोग स्याद्वाद को संजयवेलट्ठिपुत्त का संशयवाद समझते हैं, वे स्याद्वाद के स्वरूप को समझ नहीं पाए हैं । जैन दर्शन के आचार्यों ने स्पष्ट कहा है कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है । वह निश्चयवाद है, ज्ञानवाद है। संजय के अनिश्चयवाद का स्याद्वाद से कोई सम्बन्ध नहीं है।
अनेकान्त के विरोधी तों पर गम्भीरता से विचार किया जाय तो पता लगता है कि विभिन्न दर्शनकारों ने जो अनेकान्त विरोधी तर्क प्रस्तुत किये हैं, उनमें उन दर्शनकारों ने अनेकान्त दर्शन के साथ न्याय नहीं किया है। मालूम होता है कि विरोधी दर्शनकारो ने अनेकान्तवाद को समझने का या तो प्रयत्न ही नहीं किया, या समझकर भी ऊपर ऊपर ही उसका विरोध किया । वैज्ञानिक मार्ग यह है कि हम अपने विरोधियों की बात को ठीक से समझें, फिर उस पर आलोचना करें यदि हम उसको ठीक न समझकर अथवा उसके द्वारा उक्त शब्दों के अर्थ को घुमाकर या उसके एक देश को लेकर हम उसका उपहास करने की दृष्टि से कुछ भी अर्थ करें, यह उचित मार्ग अथवा तत्त्वान्वेषण या तत्त्व जिज्ञासा का मार्ग नहीं है और यह संदर्भित चिन्तन के प्रति अन्याय भी
यह पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है और यहां पुनः दुहराते हैं कि स्याद्वाद पदार्थों को जानने की एक दृष्टि है। स्याद्वाद स्वयं अंतिम सत्य नहीं है । वह हमें अंतिम सत्य तक पहुंचाने के लिए केवल मार्गदर्शक का काम करता है । स्याद्वाद से व्यवहार-सत्य के जानने में उपस्थित होनेवाले विरोधों का समन्वय किया जा सकता है । इसलिए जैन दर्शनकारों ने स्याद्वाद को व्यवहार-सत्य माना है। व्यवहार-सत्य के आगे जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य भी माना गया है जिसे पारिभाषिक शब्दों में केवलज्ञान कहा जाता है । स्याद्वाद में सम्पूर्ण पदार्थों का क्रम-क्रम से ज्ञान होता है। किन्तु केवलज्ञान सत्यप्राप्ति की उत्कृष्ट दशा है, उसमें सम्पूर्ण पदार्थ और उन पदार्थों के अनन्त पर्याय एकसाथ प्रतिभासित होते हैं । स्याद्वाद का क्षेत्र लोक-व्यवहार भी है और द्रव्यमात्र भी है, जिसका परिज्ञान सप्तभंगी द्वारा हो जाता है । स्याद्वाद हमें केवल जैसे-तैसे अर्धसत्यों को ही पूर्ण सत्य मान लेने के लिए बाध्य नहीं करता