Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 94
________________ ७८ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद अपनी ही अपेक्षा से सत्य नहीं कहा जा सकता । उदाहरण के लिये, तीन से तीन को गुणा करने पर नौ होता है (३ x ३ = ९ ), यह सिद्धांत एक बालक के लिये सर्वथा निष्प्रयोजन है, परन्तु इसे पढकर एक विज्ञानवेत्ता के सामने गणितशास्त्र के विज्ञान का सारा नक्शा सामने आ जाता है । ८ मानसशास्त्र के विद्वान प्रो. विलियम जेम्स (W.James) ने भी लिखा है, हमारी, अनेक दुनिया हैं । साधारण मनुष्य इन सब दुनियाओं का एक दूसरे से असम्बद्ध तथा अनपेक्षित रूप से ज्ञान करता है । पूर्ण तत्त्ववेत्ता वही है, जो सम्पूर्ण दुनियाओं से एक दूसरे से सम्बद्ध और अपेक्षित रूप में जानता है। इसी प्रकार के विचार पेरी२° (Perry), नैयायिक जोसेफ' (Joseph), एडमन्ड हार्स२२ (Edmund Holms) प्रभृति विद्वानों ने प्रगट किये हैं । स्याद्वाद और समन्वय दृष्टि __ स्याद्वाद सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनों का समन्वय करता है। जैन दर्शनकारों का कथन है, कि सम्पूर्ण दर्शन नयवाद में गर्भित हो जाते हैं, अतएव सम्पूर्ण दर्शन नय की अपेक्षा से सत्य हैं । उदाहरण के लिये ऋजूसूत्रनय की अपेक्षा बौद्ध, संग्रहनय की अपेक्षा वेदान्त, नैगमनय की अपेक्षा न्याय-वैशेषिक, शब्दनय की अपेक्षा शब्द ब्रह्मवादी, तथा व्यवहारनय की अपेक्षा चार्वाक दर्शनों को सत्य कहा जा सकता है ।२३ ये नयरूप समस्त दर्शन परस्पर विरुद्ध होकर भी समुदित होकर सम्यक्त्व रूप कहे जाते हैं । जिस प्रकार भिन्न भिन्न मणियों के एकत्र गूंथे जाने से एक सुन्दर माला तैयार हो जाती है, उसी तरह जिस समय भिन्न भिन्न दर्शन सापेक्ष वृत्ति धारण करके एकत्रित होते हैं, उस समय ये जैन दर्शन कहे जाते हैं । अतएव जिस प्रकार धन, धान्य आदि वस्तुओं के लिये विवाद करने वाले पुरुषों को कोई साधु पुरुष समझा बुझाकर शांत कर देता है, उसी तरह स्याद्वाद परस्पर एक दूसरे के ऊपर आक्रमण करने वाले दर्शनों को सापेक्ष सत्य मानकर सबका समन्वय करता है । इसीलिये जैन विद्वानो ने जिन भगवान के वचनों को मिथ्यादर्शनों का समूह मानकर अमृत का सार बताया है । उपाध्याय यशोविजय जी के शब्दों में कहा जाय, तो हम कह सकते हैं, कि एक "सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता । वह सम्पूर्ण नयरूप दर्शनों को इस प्रकार से वात्सल्य दृष्टि से देखता है, जैसे कोई

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