Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद
ति की तरह वस्तुस्वरूपका निषेधपरक व्याख्यान करनेका प्रयत्न किया है। ऐसा करनेका कारण स्पष्ट यही है कि तत्कालमें प्रचलित वादोंके दोषोंकी ओर उनकी दृष्टि गई और इस लिये उनमें से किसी वादका अनुयायी होना उन्होंने पसंद नहीं किया । इस प्रकार उन्होंने एक प्रकारसे अनेकान्तवादका रास्ता साफ किया । भगवान महावीरने तत्द्वादोंके दोष और गुण दोनोंकी ओर दृष्टि दी । प्रत्येक वादका गुणदर्शन तो उस वादके स्थापकने प्रथमसे कराया ही था, उन विरोधीवादोंमें दोषदर्शन भ० बुद्धने किया । तब भगवान् महावीरके सामने उन वादोंके गुण और दोष दोनों आ गए । दोनों पर समान भावसे दृष्टि देने पर अनेकान्तवाद स्वतः फलित हो जाता है । भगवान् महावीरने तत्कालीन वादों के गुणदोषोंकी परीक्षा करके जितनी जिस वादमें सच्चाई थी उसे उतनी ही मात्रामें स्वीकार करके सभी वादोंका समन्वय करनेका प्रयत्न किया। यही भगवान् महावीर का अनेकान्तवाद या विकसित विभज्यवाद है । भगवान् बुद्ध जिन प्रश्नोंका उत्तर विधिरूपसे देना नहीं चाहते थे उन सभी प्रश्नोंका उत्तर देनेमें अनेकान्तवादका आश्रय करके भगवान् महावीर समर्थ हुए। उन्होंने प्रत्येक वादमें पीछे रही हुई दृष्टिको समझनेका प्रयत्न किया, प्रत्येक वादकी मर्यादा क्या है, अमुक वादका उत्थान होनेमें मूलतः क्या अपेक्षा होनी चाहिए, इस बातकी खोज़ की और नयवादके रूपमें उस खोजको दार्शनिकोंके सामने रखा । यही नयवाद अनेकान्तवादका मूलाधार बन गया ।
अब मूल जैनागमोंके आधार पर ही भगवान् के अनेकान्तवादका दिग्दर्शन कराना उपयुक्त होगा ।
पहले उन प्रश्नोंको लिया जाता है जिनको कि भ० बुद्धने अव्याकृत बताया है। ऐसा करनेसे यह स्पष्ट होगा कि जहाँ बुद्ध किसी एक वादमें पड जानेके भय से निषेधात्मक उत्तर देते हैं वहाँ भ० महावीर अनेकान्तवादका आश्रयकरके किस प्रकार विधिरूप उत्तर देकर अपना अपूर्व मार्ग प्रस्थापित करते
हैं
लोककी नित्यानित्यता
उपर्युक्त बौद्ध अव्याकृत प्रश्नोंमें प्रथम चार लोककी नित्यानित्यता और सान्तता-अनन्तताके विषयमें है । उन प्रश्नोंके विषयमें भगवान् महावीर का जो
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• सान्तानन्तता ।