Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध.... ६५
(२) लोक अशाश्वत है ? (३) लोक अन्तवान् है ? (४) लोक अनन्त है ? (५) जीव और शरीर एक है ? (६) जीव और शरीर भिन्न हैं ? (७) मरनेके बाद तथागत होते हैं ? (८) मरनेके बाद तथागत नहीं होते ? (९) मरनेके बाद तथागत होते भी हैं, और नहीं भी होते हैं ? (१०) मरनेके बाद तथागत न-होते हैं, और न-नही होते हैं ?
इन प्रश्नोंका संक्षेप तीन ही प्रश्नमें है- (१) लोककी नित्यता - अनित्यता और सान्तता-निरन्तताका प्रश्न (२) जीव-शरीरके भेदाभेदका प्रश्न और (३) तथागतकी मरणोत्तर स्थिति-अस्थिति अर्थात जीवकी नित्यता अनित्यताको प्रश्न । ये ही प्रश्न भगवान बुद्धके जमानेके महान् प्रश्न थे। और इन्हींके विषयमें भ. बुद्धने एकतरहसे अपना मत देते हुए भी वस्तुतः विधायकरूपसे कुछ नहीं कहा । यदि वे लोक या जीवको नित्य कहते तो उनको उपनिषद् -मान्य शाश्वतवादको स्वीकार करना पडता और यदि वे अनित्य पक्षको स्वीकार करते तब चार्वाक जैसे भौतिकवादी संमत उच्छेदवादको स्वीकार करना पड़ता। इतना तो स्पष्ट है कि उनको शाश्वतव दमें भी दोष प्रतीत हुआ था और उच्छेदवादको भी वे अच्छा नहीं समझते थे । इतना होते हुए भी अपने नये वादको कुछ नाम देना उन्होंने पसंद नही किया और इतना ही कह कर रह गये कि ये दोनों वाद ठीक नहीं । अतएव ऐसे प्रश्नोंको अव्याकृत, स्थापित, प्रतिक्षिप्त बता दिया और कह दिया कि लोक शाश्वत हो या अशाश्वत, जन्म है ही, मरण है ही । मैं तो इन्हीं जन्ममरणके विघात को बताता हूँ। यही मेरा व्याकृत है । और इसीसे तुम्हारा भला होनेवाला है । शेष लोकादिकी शाश्वतता आदिके प्रश्न अव्याकृत हैं। उन प्रश्नोंका मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया ऐसा ही समझो।
इतनी चर्चासे स्पष्ट है कि भ० बुद्धने अपने मन्तव्योंको विधिरूपसे न रख कर अशाश्वतानुच्छेदवादका ही स्वीकार किया है। अर्थात् उपनिषदमान्य नेति