Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

Previous | Next

Page 79
________________ वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध... ६३ जयंती - भंते ! सोना अच्छा है या जगना ? भ० महावीर-जयंति ! कितनेक जीवोंका सोना अच्छा है और कितनेक जीवोंका जगना अच्छा है। ज०- इसका क्या कारण है ? भ० महावीर-जो जीव अधर्मी है, अधर्मानुग है, अधर्भाष्ठ है, अधर्माख्यायी है, अधर्मप्रलोकी है, अधर्मप्ररज्जन है, अधर्मसमाचार है, अधार्मिक वृत्तिवाले हैं वे सोते रहें यही अच्छा है; क्योंकि जब वे सोते होंगे अनेक जीवोंको पीड़ा नहीं देंगे । और इस प्रकार स्व, पर और उभयको अधार्मिक क्रियामें नहीं लगावेंगे अतएव उनका सोना अच्छा है। किन्तु जो जीव धार्मिक है, धर्मानुग है यावत् धार्मिक वृत्तिवाले हैं उनका तो जागन ही अच्छा है। क्योंकि ये अनेक जीवोंको सुख देते हैं और स्व, पर और उभय को धार्मिक अनुष्ठान में लगाते हैं अतएव उनका जागना ही अच्छा है। भगवान बुद्धके विभज्यवादकी तुलना में और भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं किन्तु इतने पर्याप्त हैं। इस विभज्यावादका मूलाधार विभाग करके उत्तर देना है जो ऊपरके उदाहरणोंसे स्पष्ट है। असली बात यह है कि दो विरोधी बातोंका स्वीकार एक सामान्यमें करके उसी एक को विभक्त करके दोनों विभागोंमें दो विरोधी धर्मो को संगत बताना, इतना अर्थ इस विभज्यवादका फलित होता है। किन्तु यहाँ एक बातकी ओर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। भ. बुद्ध जब किसीका विभाग करके विरोधी धर्मोंको घटाते हैं और भगवान् महावीरने जो उक्त उदाहरणोंमें विरोधी धर्मों को घटया है उससे स्पष्ट है कि वस्तुतः दो विरोधी धर्म एककालमें किसी एक व्यक्तिके नहीं बल्कि भिन्न भिन्न व्यक्तिओंके हैं । विभज्यवादका यही मूल अर्थ हो सकता है जो दोनों महापुरुषों के वचनोंमें एकरूपसे आया है। किन्तु भगवान् महावीरने इस विभज्यवादका क्षेत्र व्यापक बनाया है। उन्होंने विरोधी धर्मोको अर्थात् अनेक अन्तोंको एक ही कालमें और एक ही व्यक्तिमें अपेक्षाभेदसे घटाया है। इसी कारण से विभज्यवादका अर्थ अनेकान्तवाद या स्याद्वाद हुआ और इसीलिये भगवान् महावीरका दर्शन आगे चलकर

Loading...

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124