Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद अनेकान्तवाद करते हैं। एकान्तवाद और अनेकान्तवादका भी परस्पर विरोध स्पष्ट ही है । ऐसी स्थितिमें सूत्रकृतांगगत विभज्यवादका अर्थ अनेकान्तवाद या नयवाद या अपेक्षावाद या पृथक्करण करके, विभाजन करके किसी तत्त्वके विवेचन का वाद भी लिया जाय तो ठीक ही होगा। अपेक्षाभेदसे स्यात्शब्दांकित प्रयोग आगममें देखे जाते हैं । एकाधिक भंगोंका स्याद्वाद भी आगममें मिलता है। अतएव आगमकालीन अनेकान्तवाद या विभज्यवादको स्याद्वाद भी कहा जाय तो अनुचित नहीं।
भगवान बुद्धका विभज्यवाद कुछ मर्यादित क्षेत्रमें था । और भगवान महावीरका विभज्यवादका क्षेत्र व्यापक था । यही कारण है कि जैनदर्शन आगे जाकर अनेकान्तवादमें परिणत हो गया और बौद्धदर्शन किसी अंशमे विभज्यवाद होते हुए भी एकान्तवाद की ओर अग्रसर हुआ ।
भगवान् बुद्धके विभज्यवादकी तरह भगवान् महावीरका विभज्यवाद भी भगवतीगत प्रश्नोंत्तरोसे स्पष्ट होता है। गणधर गौतम आदि और भगवान् महावीर के कुछ प्रश्नोत्तर नीचे दिये जाते हैं जिनसे भ. महावीरके विभज्यवाद की तुलना भ. बुद्धके विभज्यवाद से करनी सरल हो सके।
गौ०-कोई यदि ऐसा कहे कि "मैं सर्व प्राण, सर्वभूत, सर्व जीव, सर्व सत्त्वकी हिंसा का प्रत्याख्यान करता हूँ तो क्या उसका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है या दुष्प्रत्याख्यान !
भ० महावीर-स्यात् सुप्रत्याख्यान है और स्यात् दुष्प्रत्याख्यान है । गौ०- भन्ते ! इसका क्या कारण ?
भ० महावीर- जिसको यह भान नहीं कि ये जीव है और ये अजीव, ये त्रस है और ये स्थावर, उसका वैसा प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है । वह मृषावादी है। किन्तु जो यह जानता है कि ये जीव हैं और ये अजीव, ये त्रस हैं और ये स्थावर, उसका वैसा प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, वह सत्यवादी है।
- भगवती श.७.उ.२.सू.२७० ।