Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 68
________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद हो तो वह वैराग्य नहीं है । सिद्धार्थ का यशोधरा से असीम स्नेह था इसी से उनका गृह-त्याग महाभिनिष्क्रमण कहा गया और उसीमें से "आत्मनो हिताय जगतः सुखाय च" इस प्रकार का संसार के लिए एक उपयोगी सन्देश प्रकट हुआ । स्याद्वाद अथवा सापेक्षवाद से यह बात फलित होती है कि कोई भी गुण जब तक अपनी मर्यादा का उल्लघंन नहीं करता, गुण रहता है, किन्तु यदि उसमें न्यूनता या अतिशयता आ जाय तो वह दोष हो जाता है । यही मध्यम मार्ग है। गीता में भी कहा है कि समत्व ही योग है । मैडेम ब्लेवेट्स्की ने सन्तुलन (Equilibrium) रखने का उपदेश दिया है। किन्तु जीवन में सदगुण की साधना करना और साथ ही साथ सन्तुलन की रक्षा करना रस्सी पर नाचने से कम नहीं है। जीवन का लोलक जब तक हिलता रहता है तब तक वह बीच की समत्व स्थिति से आगे या पीछे ही रहता है । बीच की स्थिति में तो केवल एक क्षण के लिए ही आता है यदि वह उस स्थिति में हमेशा के लिए स्थिर हो जाय तो जीवन की घड़ी ही बन्द हो जाय । अतः जीवन की गति सतत सन्तुलन को बिगाड़ने वाली ही एक क्रिया है, तथापि जीवन की गति को चलाते हुए सन्तुलन की रक्षा करना यही मनुष्य का साध्य है । उँचे लटकाये गये तराजू के दोनों पलड़ों को स्थिर रखने की क्रिया के समान यह मार्ग धर्म-साधन की दृष्टि से ही नहीं अपितु सफल एवं सरल व्यवहार के लिए भी आवश्यक है। संसार में कोई भी मनुष्य सर्वसद्गुणों का समान भाव से अनुशीलन नहीं कर सकता । देश-काल का वातावरण, आनुवंशिक संस्कार तथा पूर्वजन्म से प्राप्त एवं इस जन्म में विकसित वृत्ति इन सभी सीमाओं के अनुसार ही वह भिन्न भिन्न गुणों का अनुशीलन कर सकता है। उसकी शक्तियों के विकास में भी इसी प्रकार का तारतम्य आ जाता है । प्रकृति का गुरुत्वाकर्षण सर्वत्र संतुलित है। अतः एक गुण या शक्ति की न्यूनता या अधिकता होने पर उसके पूरक गुण या शक्ति उसी परिणाम में कम या अधिक होते हैं । एक इन्द्रिय के कमजोर होने पर दूसरी अधिक बलवान होती है। एक के अधिक बलवान होने पर दूसरी मन्द हो जाती है।Page Navigation
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