Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

Previous | Next

Page 57
________________ चतुर्थ प्रकरण अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक अनेकान्तवाद भारतीय दर्शनों कि एक संयोजक कड़ी और जैन दर्शन का हृदय है । इसके बीज आज से सहस्त्रों वर्ष पूर्व संभावित जैन आगमों में उत्पाद् व्यय, ध्रौव्य, स्यास्ति, स्यान्नास्ति, द्रव्य गुण, पर्याय, सप्तनय आदि विविध रूपों में बिखरे पड़े हैं । सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि जैन दार्शनिकों ने सप्तभंगी आदि के रूप में तार्किक पद्धति से अनेकान्तवाद को एक व्यवस्थित रूप दिया । तदनन्तर अनेक आचार्यों ने इस पर अगाध वाङ्मय रचा जो आज भी उसके गौरव का परिचय देता है । विगत १५०० वर्षों में स्याद्वाद दार्शनिक जगत का एक सजीव पहलू रहा और आज भी है । संसार के जितने भी विद्वान इस तर्क पद्धति के परिचय में आते हैं, वे सभी इस पर मुग्ध हो जाते हैं । डा. हर्मन जेकोबी, डो. स्टीनकोनो, 1 डा. टेसीोरी, डो. पारोल्ड, जार्ज बर्नार्ड शा, जैसे चोटी के पाश्चात्य विद्वानों ने इस सिद्धान्त की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है । भगवान् महावीर का युगदर्शन - प्रणयन का युग था । आत्मा, परलोक, स्वर्ग, मोक्ष, है या नहीं इन प्रश्नों की गूंज थी। सामान्य विषय भी बहुत चर्चे जाते थे । महात्मा बुद्ध मध्यम प्रतिपदावाद या विभज्यवाद के द्वारा समझाते थे। संजय वेलट्ठिपुत निपेक्षवाद या अनिश्चियवाद की भाषा में बोलते थे । भगवान् महावीर का प्रतिपादन स्याद्वाद के सहारे होता था । भगवान् महावीर ने आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूपनिरूपण के अवसर पर कभी मौन धारण नहीं किया । जब कभी कोई जिज्ञासु उनके समीप आया और उसने आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के संबंध में कोई प्रश्न पूछा तब भगवान् ने अनेकान्त दृष्टि के आधार पर उसके प्रश्न का समाधान करने का सफल प्रयत्न किया है। जबकि भगवान् महावीर के समकालीन तथागत बुद्ध ने इस प्रकार के प्रश्नों को अव्याकृत कोटि में डाल दिया था । भगवान महावीर के युग के प्रचलित वादों का अध्ययन जब कभी हम प्राचीन ४

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124