Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 55
________________ चार आधार, पाँच कारण अर्थ में प्रयोग किया गया हैं। हम जिसे उद्यम, या पुरुषार्थ कहते हैं उस अर्थ में 'कर्म' शब्द का उपयोग नहीं किया गया । (५) उद्यम - यहाँ पर उद्यम शब्द का अर्थ पुरुषार्थ से है। उद्यमवादी मात्र उद्यम को सभी कार्यों का कारण मानते हैं । वह जो कहते हैं वह सुनने लायक है। काल, स्वभाव, नियति अथवा कर्म असमर्थ है सिर्फ उद्यम समर्थ है। उद्यम करने से रामचन्द्रजी सागर को पार कर गये, उद्यम से ही उन्हें लंका का राज्य प्राप्त हुआ जिसे उन्होंने विभीषण को सुपुर्द कर दिया। पुरुषार्थ से पाण्डवों ने कौरवों को युद्ध में पराजित किया । . उद्यम किये बिना खेत मे से अनाज और तिल के अन्दर से तेल नहीं निकलता । उद्यम किये बिना तैयार भोजन का एक कोर भी मुख में नहीं जा सकता, उद्यम के बिना खेती की पैदावार नहीं होती । एक बार उद्यम करने से यदि कार्य सिद्ध नहीं हो तो, दूसरी बार, तीसरी बार फिर से उद्यम करने से कार्य अवश्य सिद्ध होता है। ये विशेष में कहते हैं कि कर्म तो पुत्र है, उद्यम का फल है। उद्यम उसका पिता है । उद्यम से कर्म किये जाते हैं तथा उससे ही कर्मों का निवारण भी होता है । दृढपहरी ने हत्याएं करके घोर कर्म का उपार्जन किया फिर भी छ: महीने तक उद्यम करके उसने उनकी निर्जरा की । उद्यम से ही अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष प्राप्त होता है। विद्या और कला भी उद्यम से ही प्राप्त होती है। उद्यमवादियों के अनुसार जगत के सारे कार्य उद्यम से ही होते हैं । उद्यम के सिवाय सभी कारण निरर्थक, अर्थहीन और नपुसंक हैं । एक ही कारण को माननेवाले के उपरान्त, पाँच कारणों को एक समूह में माननेवाला वर्ग भी है। जैन दार्शनिक पाँचों कारणों को एक समूह में प्रस्तुत करते हैं । उनका कहना है कि जहाँ तक पाँचों कारण एक साथ नहीं मिलते तब तक कोई कार्य संभव नहीं होता । प्रत्येक वस्तु के गुण धर्म और कार्यकारण भाव को समझाने का जैन तत्त्वज्ञानियों का तरीका अनोखा और निराला है। वो वस्तु के किसीPage Navigation
1 ... 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124