Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 24
________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद जितने दर्शन उतने ही सत्य के रूप बन गए हैं । जैन दर्शन का अध्ययन हमें सत्य की दिशा में आगे ले जाता है और दर्शन के आकाश में छाए हुए कुहासे में देखने की क्षमता देता है। द्रव्य के अनन्त धर्म हैं। कोई दर्शन किसी एक धर्म को मुख्य मानकर उसका प्रतिपादन करता है तो दूसरा दर्शन किसी दूसरे धर्म को मुख्य मानकर उसका प्रतिपादन करता है। दोनों की पृष्ठभूमि में एक ही द्रव्य है, किन्तु एकांगी प्रतिपादन के कारण वे विरोधी से प्रतीत होने लगते हैं । उनमें प्रतीत होने वाले विरोध का शमन अनेकान्त दृष्टि से ही किया जा सकता है। अनेकान्त के बिना अहिंसा की गहराई का स्पर्श कभी भी नहीं हो सकता। किसी व्यक्ति के विपरीत व्यवहार को देखकर अगर हमारे मन में उसके प्रति घृणा होती है, द्वेष होता है, तो वह घृणा और द्वेष संसार की वृद्धि के कारण हैं। हिंसा की जड में ही राग, द्वेष, ईर्ष्या और माया हैं । अहिंसा का मुल उदगम समत्व से होता है, और समत्व ही अनेकान्त का हृदय है। दूसरे शब्दों में अनेकान्त वैचारिक अहिंसा का विकसीत रूप है। पंडित सुखलालजीका कहना है कि "अनेकान्त दृष्टि सत्य पर खडी है। यद्यपि सभी महान पुरुष सत्य को पसन्द करते हैं और सत्य की खोज तथा सत्य के ही निरूपण में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, तथापि सत्य के निरूपण की पद्धति और सत्य की खोज सबकी एक-सी नहीं होती। बुद्धदेव जिस शैली से सत्य का निरूपण करते हैं या शंकराचार्य उपनिषदों के आधार पर जिस ढंग से सत्य का प्रकाशन करते हैं उनसे महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली जुदा है। महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली का ही दूसरा नाम "अनेकान्तवाद" है । उसके मूल में दो तत्त्व है- पूर्णता और यथार्थता । जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप से प्रतीत होता है, वही सत्य कहलाता है ।"५ अनेकान्त का उद्भव अनेकान्त के उद्भव का जैन दर्शन से सम्बन्धित आगमिक स्वरूप से हम परिचय करें । जैन आगम में भी और गीता में भी यह कहा गया है कि जब जब धर्म का नाश होता है और अधर्म बढ जाता है । तब महापुरुष काPage Navigation
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