Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद
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स्व. आनंदशंकर ध्रुव ने अपने एक व्याख्यान में स्याद्वाद सिद्धान्त के बारे में कहा था कि "स्याद्वाद" एकीकरण का बिन्दु हमारे समक्ष खडा करता है शंकराचार्य ने 'स्याद्वाद' के बारे में जो आक्षेप किया है वह मूल रहस्य के साथ संबंध नहीं रखता है | यह निश्चित है कि विविध दृष्टिबिन्दुओं से निरीक्षण किये बिना कोई भी वस्तु, सम्पूर्ण रूप से समझ में नहीं आ सकती। इसके लिये "स्याद्वाद उपयोगी और सार्थक है । महावीर के सिद्धान्त में बताये गये' स्याद्वाद को कई लोग 'संशयवाद' कहते हैं, इस बात से मैं सहमत नहीं हूँ। स्याद्वाद संशयवाद नहीं है किन्तु वह हमें एक दृष्टिबिन्दु दिखाता है- विश्व अवलोकन किस प्रकार करना चाहिये, यह हमें सिखाता है । "
स्याद्वाद यही प्रतिपादन करता है, कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता, वह पदार्थों की अमुक अपेक्षा को लेकर ही होता है, इसलिये हमारा ज्ञान आपेक्षिक सत्य है । प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं । इन अनन्त धर्मों में से हम एक समय में कुछ धर्मों का ही ज्ञान कर सकते हैं, और दूसरों को भी कुछ धर्मों का ही प्रतिपादन कर सकते हैं । जैन तत्त्ववेताओं का कथन हैं, कि जिस प्रकार कई अंधे मनुष्य किसी हाथी के भिन्न भिन्न अवयवों को हाथ से टटोलकर हाथी के उन भिन्न भिन्न अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझ कर परस्पर लडते हैं, ठीक इसी प्रकार संसार का प्रत्येक दार्शनिक सत्य के केवल अंशमात्र को ही जानता है, और सत्य के इस अंशमात्र को सम्पूर्ण सत्य समझ कर परस्पर विवाद और वितण्डा खडा करता है । सचमुच यदि संसार के दार्शनिक अपने एकान्त आग्रह को छोडकर अनेकान्त अथवा स्याद्वाद दृष्टि से काम लेने लगें, तो हमारे जीवन के बहुत से प्रश्न सहज में ही हल हो सकते हैं । वास्तव में सत्य एक है, केवल सत्य की प्राप्ति के मार्ग जुदा जुदा हैं 1 अल्प शक्तिवाले छद्मस्थ जीव इस सत्य का पूर्ण रूप से ज्ञान करने में असमर्थ हैं, इस लिये उनका सम्पूर्ण ज्ञान आपेक्षिक सत्य ही कहा जाता है । यही जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि का गूढ रहस्य है ।
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यहाँ एक शंका हो सकती है, कि इस सिद्धान्त के अनुसार हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्य का ही ज्ञान हो सकता है, स्याद्वाद से हम पूर्ण सत्य नहीं जान सकते । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है, कि स्याद्वाद हमें