Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 42
________________ २६ . समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद तोड़कर उसका मुकुट बनवा डाला । हुआ क्या ? आकृति बदल गई, परन्तु उसका कनकत्व नहीं बदला । वह तो ज्यों का त्यों ही रहा । जैसा पहले था, वैसा अब भी है । सिद्धान्त यह रहा कि-"द्रव्यं नित्यं, आकृति पुनरनित्या ।" प्रमाण और नय - अनन्त-धर्मात्मक वस्तु का सम्यग्ज्ञान दो से होता है - प्रमाण से, और नय से। अनन्त-धर्मात्मक वस्तु-तत्त्व के समग्र धर्मों को अथवा उसके अनेक धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञान-प्रमाण होता है। और उस वस्तु के किसी एक ही धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञान-नय कहा जाता है । अयंघट:-यह ज्ञान- प्रमाण है, क्योंकि इसमें घट के रूप, रस, स्पर्श और गन्ध तथा कनिष्ठ-ज्येष्ठ आदि समग्र धर्मों का परिबोध हो जाता है। परन्तु जब यह कहा जाता है- 'रूपवान् घट' तब केवल घट के अनन्त धर्मों में से 'रूप' का ही परिज्ञान होता है, उसके अन्य धर्म-रस, स्पर्श और गन्ध आदि का नहीं । अनन्त धर्मात्मक वस्तु के परिज्ञान में अंश कल्पना-यही वस्तुतः नय है। अतः अंशी के किसी एक अंश का ज्ञान 'नय' और अनेक अंशों का ज्ञान 'प्रमाण' होता है। ___'नयवाद' वस्तुतः जैन-दर्शन की अपनी एक विशिष्ट विचार-पद्धति है। जैन-दर्शन प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण 'नय' से करता है। जैन-दर्शन में एक भी सूत्र और अर्थ ऐसा नहीं जो नय-शून्य हो । विशेषावश्यक भाष्य में यह तथ्य इस प्रकार है "नत्थि नएहि विहुणं, सुत्तं अत्थों य जिण-मए किंचि ।" T. बिन प्रवचन में कोइ भी सूत्र इवं अर्थ नयों से विहीन नहीं है. जैन दार्शनिकों के समक्ष एक बड़ा ही जटिल प्रश्न, साथ ही गम्भीर भी था, कि -नय क्या है ? नय प्रमाण है अथवा अप्रमाण ? यदि वह प्रमाण है, तो प्रमाण से भिन्न क्यों ? और यदि वह अप्रमाण है, तो वह मिथ्या ज्ञान होगा। और मिथ्या ज्ञान के लिए विचार-जगत में क्या कहीं स्थान होता है ? इन प्रश्नों का मौलिक समाधान जैन दार्शनिकों ने बडी गम्भीरता और सतर्कता से किया है। वे अपनी तर्क-शैली में कहते हैं "नय. न तो प्रमाण है, और न अप्रमाण । परन्तु प्रमाण का एक अंशPage Navigation
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