Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 51
________________ चार आधार, पाँच कारण ३५ मानना मिथ्या है । ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी हिल नहीं सकता ऐसा मानने वाले और कहने वाले भवितव्यता अर्थात् नियति का अर्थ केवल ईश्वर की इच्छा, ऐसा मानते हैं। ये दोनों अर्थ गलत है। यहाँ भवितव्यता दो में से किसी भी एक अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। जैन तत्त्वज्ञानी कर्ता के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते । कोई भी कार्य करने की इच्छा यह एक मनुष्य सुलभवृत्ति है और ऐसी वृत्ति जिसमें हो उसे ईश्वर नहीं माना जा सकता. हिन्दु धर्म में ईश्वर के साकार और निराकार दो स्वरूप माने गये हैं जो दोनों स्वरूप ईश्वर को क्रियाशील कर्ता के स्वरूपमें मानते हैं । जैन तत्त्वज्ञान इसे स्वीकार नहीं करता । ___ जैन तत्त्वज्ञानी भवितव्यता उर्फ नियति का अर्थ 'निश्चित हुआ' ऐसा करते हैं । काल के दो विभाग है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी; प्रत्येक विभाग में बारह चक्रवर्ती और चौबीस तीर्थंकर होते हैं, ऐसा ही निश्चित कम है और इसका कारण वह लोग भवितव्यता मानते हैं। दूसरे चार कारणों के साथ मिलकर यह कारण कार्य कराता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार प्रत्येक कार्य के पीछे पाचवाँ अनिवार्य कारण नियति होता है। इस विश्व की रचना में तथा संसार की घटनाओं में कितने ही ऐसे कार्य होते हैं जिनके पीछे काल, स्वभाव, कर्म और उद्यम रूपी कारणों के अलावा कोई और अगम्य कारण भी होता है। ये चार कारण जब पर्याप्त नहीं होते तब इन चारों को साथ रखकर पाचवा कारण भी काम करता है। उदाहरण के तौर पर जैनशास्त्र में काल के जो विभाग बताये गये हैं उनमें कितने ही कार्य क्रमशः और निश्चित रूप में होते हैं, उत्सर्पिणी काल में रूप, रस, गंध, शरीर, आयुष्य, वैभव आदि की क्रमशः वृद्धि होती है। जब कि अवसर्पिणी काल में वैभव क्रमशः कम-ज्यादा होता रहता है। मनुष्य के शरीर का प्रमाण-कद अवसर्पिणी के प्रारम्भ में जो होता है वह कम होता जाता है। इसी प्रकार मनुष्य की आयु भी कम होती जाती है। अवसर्पिणी विभाग जब पुरा हो जाता है और उत्सर्पिणी शुरु होता है तब कद और प्रमाण बढ़ते जाते हैं । यह क्रम कालचक्र के प्रत्येक विभाग में निश्चित होता है। इन सबPage Navigation
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