Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 35
________________ स्याद्वाद, सप्त-भंगी, नयवाद, प्रमाण अर्ध-सत्यों के पास ले जाकर पटक देता है, और इन्हीं अर्धसत्यों को पूर्ण सत्य मान लेने की प्रेरणा करता है । परन्तु केवल निश्चित-अनिश्चित अर्धसत्यों को मिलाकर एक साथ रख देने से वह पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता। तथा किसी न किसी रूप में पूर्ण सत्य को माने बिना कोई भी दर्शन पूर्ण कहे जाने का अधिकारी नहीं है । इस भाव को भारत के प्रसिद्ध विचारक विद्वान प्रो. राधाक्रिश्नन् ने निम्न प्रकार से उपस्थित किया है - · The Theory of Relativity cannot be logically sustained without the hypothesis of an absolute .... The Jains admit that things are one in their universal aspect (Jāti or Kārana) and many in their particular aspect (Vyakti or Kārya). Both these, according to them, are partial points of view. A plurality of reals is admittedly a relative truth. We must rise to the complete point of view and look at the whole with all the wealth of its attitudes, If Jainism stops short with plurality, which is at best a relative and partial truth, and does not ask whether there is any higher truth pointing to a one which particularises itself in the objects of the world, connected with one another, vitally, essentially and immanently, it throws overboard its own logic and exalts a relative truth into an absolute one.3 इस शंका का समाधान बहुत स्पष्ट है, और वह यह है, जैसा कि ऊपर बताया गया है, कि स्याद्वाद पदार्थों के जानने की एक दृष्टि मात्र है। स्याद्वाद स्वयं अंतिम सत्य नहीं है। यह हमें अन्तिम सत्य तक पहुंचाने के लिये केवल मार्गदर्शक का काम करता है । स्याद्वाद से केवल व्यवहार सत्य के जानने में उपस्थित होने वाले विरोधों का ही समन्वय किया जा सकता है, इसीलिये जैन दर्शनकारों ने स्याद्वाद को व्यवहार सत्य माना है। व्यवहार सत्य के आगे भी जैन सिद्धान्त में निरपेक्ष सत्य माना गया है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दों में केवलज्ञान के नाम से कहा जाता है । स्याद्वाद में सम्पूर्ण पदार्थों का क्रमक्रम से ज्ञान होता है, परन्तु केवलज्ञान सत्यप्राप्ति की वह उत्कृष्ट दशा है, जिसमें सम्पूर्ण पदार्थ और उन पदार्थों की अनन्त पर्यायों का एक साथ ज्ञान होता है। स्याद्वाद परोक्षज्ञान श्रुतज्ञान में गर्भित होता है, इसलिये स्याद्वाद से केवल

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