Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा अवतार होता है । इस उक्ति के अनुसार पृथ्वी पर जब बहुत अधर्म बढ जाता है और धर्म का नाश हो जाता है तब अधर्म का नाश करने के लिए तथा धर्म की वृद्धि करने के लिए महापुरुषों का अवतार हुआ करता है । इस अनादि नियम के अनुसार प्रत्येक काल में २४ तीर्थकर उत्पन्न होते हैं । तीर्थंकर याने धर्म की स्थापना करके तीर्थ याने संघ को प्रवृत्त करने वाले महापुरुष । इस काल (युग) में भी २४ तीर्थंकर हुए हैं और उन्होंने धर्म की स्थापना की है। यहाँ यह बात भी देखने की है कि इन २४ तीर्थकरों में से कइयों के नाम वैदिक धर्म के २४ अवतारों में परिगणित हैं, उनके नाम वेदों में भी उल्लिखित
. जन्म के बाद तीर्थंकर यौवन में पदार्पण करते हैं, उन्हें वैराग्य आता है और वे संसार को छोड़कर दीक्षा याने सन्यास ले लेते हैं। कठोर तप, साधना एवं ध्यान के द्वारा अपने शुभ एवं अशुभ कर्मों का विनाश कर वे अपने आत्म स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं । इसको जैन दर्शन मे केवलज्ञान होना कहते हैं। केवलज्ञान याने सर्वज्ञता की स्थिति । उन्हें संसार की सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु का हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष ज्ञान होने लगता है। केवल ज्ञान, यह अन्य वस्तु नहीं, जिसकी प्राप्ति तीर्थंकर को होती है यह तो आत्मा का स्वरूप ही है । जैनदर्शन में आत्मा सच्चिदानंदमय माना जाता है। आत्मा में अनंत ज्ञान एवं अनंत आनन्द है, वह उसका स्वरूप ही है। मतलब यह कि उन्हें अपने पूर्ण आत्म स्वरूप की अभिव्यक्ति हो जाती है। तब वे सत्य के प्रचार के लिए उपदेश देना प्रारम्भ करते हैं। प्रथम उपदेश में उनके शिष्य बनते हैं। शिष्य पूछते हैं कि तत्त्व क्या है ? तीर्थंकर का प्रथम वाक्य यह रहता है - 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा', यह तीर्थंकर का त्रिपदी रूप उपदेश है । इस त्रिपदी से शास्त्रों की रचना होती है। सबके मूल में यह त्रिपदी है। इसका अर्थ है- 'उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और ध्रुव है याने नित्य है' इसमे प्रत्येक वस्तु को त्रिलक्षण परिणाम रूप बतलाया । प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और उसमें स्थिर एवं नित्य तत्त्व है। यह विलक्षण परिणामवाद कहा जाता है। यह त्रिपदी अनेकान्तवाद की विचार पद्धति का सार तत्त्व है । अनेकान्त, स्याद्वाद एवं नयवाद विषयक विपुल साहित्य इसी का विस्तार है । यह त्रिपदी ही तीर्थकर