Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा
वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है, नित्य ही है, अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार सर्वथा एकान्त के निराकरण करने का नाम अनेकान्त है । इस प्रकार अनेकान्त में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले दो धर्म रहते हैं।
अनेकान्त दर्शन से मनुष्य में सद्विचार का आविर्भाव होता है। और पूर्वाग्रह अथवा एकान्त हठवाद का अन्त हो जाता है । अनेकान्त दृष्टिमान् यह विचारता है कि पदार्थ में एक मात्र वही गुणधर्म नहीं है, जिसे मैं जानता हूँ, अपितु दूसरा व्यक्ति उसमें जिस अपर गुण की स्थिति बता रहा है, वह भी उसमें है। यह विचारों की प्रांजलता, दर्शन की व्यापकता तथा सहिष्णुता को प्रसारित कर समन्वय मार्ग को प्रशस्त करता है।
जैन धर्म ने अनेकान्त दृष्टि से विश्व को देखा और स्याद्वाद की भाषा में उसकी व्याख्या की, इसलिए वह न अद्वैतवादी बना और न द्वैतवादी । उसकी धारा स्वतंत्र रही। फिर भी उसने दोनों कोणों का स्पर्श किया । अनेकान्त दृष्टि अनन्त नयों की समष्टि है। उसके अनुसार कोईभी एक नय पूर्ण सत्य नहीं है। और कोई भी नय असत्य नहीं है। वे सापेक्ष होकर सत्य होते हैं और निरपेक्ष होकर असत्य हो जाते हैं। हम संग्रहनय की दृष्टि से देखते हैं तब सम्पूर्ण विश्व अस्तित्त्व के महास्कंध में अवस्थित होकर एक हो जाता है। इस नय की सीमा में द्वैत नहीं होता, चेतन और अचेतन का भेद भी नहीं होता । द्रव्य और गुण तथा शाश्वत और परिवर्तन का भेद भी नहीं होता। सर्वत्र अद्वैत ही अद्वैत । यह विश्व को देखने का एक नय है। उसे देखने के दूसरे भी नय है। हम व्यवहारनय से देखते हैं तब विश्व अनेक खण्डों में दिखाई देता है । इस नय की सीमा में चेतन भी है अचेतन भी है । द्रव्य भी है और गुण भी है । शाश्वत भी है
और परिवर्तन भी है । सत्य की व्याख्या किसी एक नय से नहीं हो सकती। वह अनन्तधर्मा है। उसकी व्याख्या अनन्त नयों से ही हो सकती है। हम कुछेक नयों को ही जान पाते हैं, फलतः सत्य के कुछेक धर्मों की ही व्याख्या कर पाते हैं । कोई भी शास्त्र सम्पूर्ण सत्य की व्याख्या नहीं कर पाता और कोई भी व्यक्ति शास्त्रीय आधार पर सम्पूर्ण सत्य को साक्षात् नहीं जान पाता । दर्शनों का यह अन्तर और मतवादों का भेद हमारे ज्ञान और प्रतिपादन शक्ति की अपूर्णता के कारण ही चल रहा है। यह भेद सत्य को विभक्त किए हुए है।