Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 31
________________ अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा ६. 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। -गीता ४/७ ७. जैन शास्त्रों में काल दो प्रकार के होते हैं - उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। ८. ऋषभदेव के विषय में - ऋग्वेद १०/११/१४, १.१.२, ४५, ३, ८, ४३, १२ । वैदिक इन्डेक्स भाग १, पृ. १२९ नेमि के विषय में - ऋग्वेद १, ३२, १५; १४१, ९, २; २, ५, ३, ५, १३, ६; वैदिक इन्डेक्स भाग १, पृ. ५१८ । ९. ठानांगसुत्तम्, स्थान १० षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. ३४७ । १०. श्रमण संस्कृति का विकास एवं विस्तार-डा. पुष्पमित्र (अमर भारती, मार्च-एप्रिल, १९७१)। ११. भारतीय दर्शन (बलदेव उपाध्याय) पृ. ९१ १२. पार्श्वनाथ के चतुर्याम (धर्मानन्द कौशांबी) पृ. १४ १३. न्यायखण्डनखाद्य की भूमिका से उद्धृत । १४. . स्याद्वाद भगवतप्रवचननय-न्याय विनिश्चय विवरण, पृ. ३६४ १५. सव्वे तित्थयरा एवमेव सच्चं भासयन्ति- 'आचारांगसूत्र- कल्पसूत्र' । १६. अत्थीति न भणामि णत्थीति न भणामि इत्यादि। १७. माध्यमिक कारिका - नागार्जुन । १८. विधिपूर्वकत्वान्निषेधस्य । 88. Pandit Dalsukhbhai Malvania has shown with considerable care how what was known as the Vibhajya -vāda in the later part of the Sarmana movement in India culminated in the Anekānta-vāda of Mahavira. -Sāntisūri Nyāyāvatār Vārttikavrtti. (Bombay : Bhāratiya vidyā Bhavan) २०. पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक ५९ (अमृतचन्द्र सूरि) । 'अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । खंडयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम् ।' २१. दर्शन और चिन्तन : पं. सुखलालजीPage Navigation
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