Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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विषय प्रवेश सृष्टि के आरंभ से आजतक अनेक ऋषि महर्षियों ने तत्त्वज्ञान संबंधी अनेक प्रकार के नये-नये विचारों की खोज की, परन्तु हमारी दार्शनिक गुत्थियां आज भी पहले की तरह उलझी पड़ी हुई है । जगत में चारों ओर आज जो देखने को और जानने को मिलता है उसमें बहुत विरोधाभास है । क्या यह सब विरोधाभास असत्य हैं ? भ्रम हैं ?
__ किसी एक को जो दीखता है, समझ में आता है वह दूसरे को नहीं दिखाई देता है, न ही समझ में आता है और तब क्या हम यह मानलें कि देखने वाले और नहीं देखने वाले, समझने वाले और नहीं समझने वाले, सभी लोग असत्य बोलते हैं ? उनके साथ बात करने पर मालूम होगा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को सच्चा और दूसरे को झूठा मानता है। ... आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान के बारे में भी कुछ ऐसा ही है। इसमें विभिन्न विचारधाराएं देखने को मिलती है । जब तक जगत का अस्तित्व है तब तक मतभेद तो रहेगा ही। आदिकाल से मतभेद चलते आरहे हैं और अंतकाल तक मतमतांतर रहने वाले हैं । मतमतांतर या विसंवाद के कारण ही इस विश्व का अस्तित्व गतिशील रहा है। यदि एकमतता याने संवादिता स्थापित हो जाय तो गति रुक जायेगी। इस विश्व में जीने का जो मजा है वह मतभेद के कारण ही है। मतभेद को रोकने का जो प्रबल पुरुषार्थ आदिकाल से महापुरुषों के हाथों से होता आया है, यह बात बडे गौरव की है। फिर भी हम देखते हैं कि मतभेद कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे हैं।
परन्तु, इससे निराश होने कि आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार मतभेद और मतमतांतर अनादि अंनत है। उसी प्रकार, सत्य क्या हैं ? यह जानने की मानव की जिज्ञासा भी आदिकाल से संचित है और अंतकाल तक जीवित रहेगी। सत्य की खोज की इच्छा जब तक मनुष्य के मन से लुप्त नहीं होगी तब तक उसका विकास रुकेगा नहीं ।
यह विश्व अनेक तत्त्वों की समन्विति है । वेदान्त दर्शन ने अद्वैत की स्थापना की पर द्वैत के बिना विश्व की व्याख्या नहीं की जा सकी तो उसे माया .