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प्रथमोऽध्यायः ।
-orrowसूत्रम्-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः॥१॥
भाष्यम्- सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यकचारित्रमित्येष त्रिविधो मोक्षमार्गः। ते पुरस्तालक्षणतो विधानतश्च विस्तरेणोपदेक्ष्यामः । शास्त्रानुपूर्वीविन्यासार्थ तूद्देशमात्रमिदमुच्यते । एतानि च समस्तानि मोक्षसाधनानि; एकतराभावेऽप्यसाधनानीत्यतस्त्रयाणां ग्रहणं। एषां च पूर्वलाभे भजनीयमुत्तरं । उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः । तत्र सम्यगिति प्रशंसार्थो निपातः, समञ्चतेर्वा भावः। दर्शनमिति। दृशेरव्यभिचारिणी सर्वेन्द्रियानिन्द्रियार्थप्राप्तिरेतत्सम्यग्दर्शनम्। प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनं । संगतं वा दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । एवं ज्ञानचारित्रयोरपि।
अर्थ-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इस तरहसे यह मोक्षमार्ग तीन प्रकारका है । इसके लक्षण और भेदोंका हम आगे चलकर विस्तारके साथ निरूपण करेंगे। परन्तु नाममात्र भी कथन किये विना शास्त्रकी रचना नहीं हो सकती । अतएव केवल शास्त्रकी रचना क्रमबद्ध हो सके, इसी बातको लक्ष्यमें रखकर यहाँपर इनका उद्देशमात्र ही निरूपण किया जाता है। ये सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों मिले हुए ही मोक्षके साधन माने गये हैं, न कि पृथक् पृथक् एक अथवा दो। इनमें से यदि एक भी न हो, तो बाकीके भी मोक्षके साधक नहीं हो सकते, यही कारण है, कि आचार्य ने इस सत्र में तीनोंका ही ग्रहण किया है। इनमें से पर्वका लाभ होनेपर भी उत्तर-आगेका भजनीय है, अर्थात् पूर्वगुणके प्रकट होनेपर उसी समय उत्तरगुण भी प्रकट हो ही ऐसा नियम नहीं है। हाँ, उत्तरगुणके प्रकट होनेपर पूर्वगुणका लाभ होना अवश्य ही नियत है।
सूत्रमें सम्यक् शब्द जो आया है, वह दो प्रकारसे प्रशंसा अर्थका द्योतक माना है । अव्युत्पन्न पक्षमें यह शब्द निपातरूप होकर प्रशंसा अर्थका वाचक होता है । और व्युत्पन्न पक्षमें सम्पूर्वक अञ्चु धातुसे विप् प्रत्यय होकर यह शब्द बनता है, और इसका भी अर्थ प्रशंसा ही होता है । - सम्यक् शब्दकी तरह दर्शन शब्द भी दृश धातुसे भावमें यट् प्रत्यय हो कर बना है । प्रशंसार्थक सम्यक् शब्द दर्शनका विशेषण है । अतएव जिसमें
१- नाममात्रकथनमुद्देशः । २-इन तीनोंकी रत्नत्रय संज्ञा है । रत्नका लक्षण ऐसा बताया है कि “जाती जातौ यदुत्कृष्टं तत्तद्रत्नमिहोच्यते।" जो जो पदार्थ- हाथी, घोड़ा, स्त्री. पुरुष, खड्ग, दण्ड, चक्र चर्म आदि अपनी अपनी जातिमें उत्कृष्ट हैं, वे वे उस जातिमें रत्न कहाते हैं । मोक्षके साधनमें ये तीनों आत्मगुण सर्वोत्कृष्ट हैं, अतएव इनको रत्नत्रय कहते हैं। ३-सम्यग्दर्शनके होनेपर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नियमसे उत्पन्न हों ही यह बात नहीं है। इसी प्रकार सम्यग्ज्ञानके होनेपर सम्यक्चारित्र हो ही ऐसा नियम नहीं है। किन्तु सम्यक्चारित्रके होनेपर सम्यग्ज्ञान और सम्यग्ज्ञानके होनेपर सम्यग्दर्शन नियमसे होता ही है। यह बात किस अपेक्षासे कही है, सो हिंदी टीकामें आगे इसी सूत्रकी व्याख्यामें लिखा है । ४---व्याकरणमें दो पक्ष, माने हैं-एक व्युत्पन्न दूसरा अव्युत्पन्न ।
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