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बहुत ही कम तादाद में है । जवाहरात के व्यापारी लगभग प्रत्येक नगर में होते हैं। सभी नगरों में टेस्टिंग मशीनों पर पहुँचना बहुत ही कठिन है | यदि आप जाँच कराने मशीन तक पहुँच भी जायें तो वह पत्थर खाद्यान से निकला हुआ असली है या कांच से बना हुआ नकली है, यही बता सकेगी, परन्तु रत्न और उपरत्न सैकड़ों को गिनती में है उसका नाम तो मशीन नहीं बता सकेगी ।
पहले समय के आयुर्वेदिक चिकित्सक रोग का निदान नाड़ी ज्ञान से करते थे, अब एलोपैथिक वालों की देखा देख वैद्य भी रोग का निदान यन्त्रों से करने लगे हैं । इसलिये नाड़ी ज्ञान प्रायः लुप्त होता चला जा रहा है । आज के वैदिक पढ़े हुए तो उस नाड़ी ज्ञान को ही नकार रहे हैं, कह रहे हैं- नाड़ी को घीमी, मन्द या तीव्र गति से रोग नहीं जाना जाता था । मरीज से पूछ-पूछ कर अनुमान से ही रोग का पता पुराने लोग किया करते थे । इसी प्रकार आज रत्न तो परख करने वाले भी प्रायः लुप्त होते चले जा रहे हैं। पूरे देश में ही कुछ गिने-चुने लोग रह गये हैं । नये विक्रेताओं को अपने पर पूरा भरोसा नहीं है । वह स्वयं भी मशीनों पर निर्भर हैं। मशीन हर जगह उपलब्ध नहीं है । ऐसी दशा में नये पारखी जो कुछ बतायेंगे वह क्या होगा ? आप स्वयं विचार कर देखें ! जो स्वयं अन्धेरे में है, वह दूसरों को प्रकाश में कैसे ले जायेंगे | आज के समय में तो नकल भी भरमार है । प्रत्येक वस्तु की नकल बनाकर मनुष्य रातों-रात करोड़पति या अरबों का मालिक बनने की होड़ में दौड़ा जा रहा है ।
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जवाहरात के सम्बन्ध में भी यही बात लागू है । काँच तथा कैमिकल के एक-से-एक अच्छे नग बनाकर तैयार किये जा रहे हैं । उनके ऊपर सुन्दर, आकर्षक पॉलिश भी दिखाई देती है । इस प्रकार के नगों को बेचने वालों के पास बातें भी बड़ी लुभावनी होती हैं ।
रत्न ज्ञान
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