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उदात्त विचार एवं सर्वोदयी भावना
प्रखर तार्किक आचार्य प्रभाचन्द्र अत्यन्त व्यापक एवं उदार चिन्तन वाले थे। वे व्यक्ति - स्वातंत्र्य एवं सर्वोदय की भावना के प्रबल समर्थक थे। आत्मधर्म धारण करने में जाति, वर्ण, गौत्र वंश आदि कोई भी बाह्य तत्त्व बाधक नहीं है, ऐसी उनकी मान्यता थी। एक बार आचार्य प्रभाचन्द्र ने शूद्रों तक को जैन दीक्षा दी। इससे राजपुरोहित बहुत कुपित हुआ और प्रकरण राजा भोज के समक्ष निर्णयार्थ पहुँचा। आचार्य प्रभाचन्द्र ने जन्मजात वर्ण-व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ा दीं। उन्होंने कहा कि ब्राह्मणत्व नित्यत्व एवं ब्रह्मप्रभत्व रूप नहीं है। वर्ण-व्यवस्था धर्म-व्यवस्था न होकर मात्र क्रिया-आधारित समाज-व्यवस्था है। यह जन्मना न होकर कर्मणा है। पद्मचरित्र के अनुसार वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म के अनुसार है, योनि निमित्तक नहीं ऋषिशृंग आदि में ब्राह्मण व्यवहार गुणनिमित्तक ही हुआ है। चातुर्वर्ण्य या चाण्डाल आदि व्यवहार सब क्रियानिमित्तक हैं (पद्मचरित-आचार्य रविषेण कृत, 11.198 से 205 श्लोक ) । इसी के अध्याय 11 के 20वें श्लोक में व्रतधारी चाण्डाल को ब्राह्मण कहा है
व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।
पूर्ववर्ती आचार्य जटासिंहनन्दि 'वरांग चरित्र' ( 25.11) में लिखते हैं कि शिष्टजन वर्ण-व्यवस्था को अहिंसादिक व्रतों का पालन, रक्षा करना, खेती आदि करना तथा शिल्पवृत्ति इन चार प्रकार की क्रियाओं से ही मानते हैं। वर्ण-विभाजन सामाजिक व्यवस्था के लिए है, इसका अन्य कोई हेतु नहीं है।
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जिनसेन आचार्य ने आदिपुराण पर्व 38 श्लोक 45-46 में कहा है। कि जाति नामकर्म से तो सबकी एक ही 'मनुष्य जाति' है। ब्राह्मण आदि चार भेद वृत्ति अर्थात् आचार-व्यवहार से है। व्रत संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और सेवावृत्ति से शूद्र होते हैं।
आचार्य प्रभाचन्द्र ने कहा कि जिन-जिन व्यक्तियों में जो-जो गुण-कर्म पाए जायेंगे उसी अनुसार उनमें ब्राह्मण आदि व्यवहार होगा