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हरसोल अभिलेख अ
की राष्ट्रकूट उत्पत्ति इस तथ्य से भी प्रमाणित होती है कि सीयक द्वितीय के पुत्र वाक्पति मुंज ने अमोघवर्ष श्रीवल्लभ एवं पृथ्वीवल्लभ की राष्ट्रकूट उपाधियां धारण की थीं। इस आधार पर डा. गांगूली निष्कर्षरूप लिखते हैं कि परमारों का मूल निवास स्थान अवश्य ही दक्षिण में रहा होगा जो किसी समय राष्ट्रकूटों का निवास स्थान व राज्य था । इसके प्रमाणस्वरूप वे आईने अकबरी का साक्ष्य देते हैं जिसमें लिखा है कि परमार वंश का संस्थापक धनंजय दक्खिन से अपनी राजधानी बदल कर मालवा का अधीश्वर बन गया (वही, पृष्ठ ६-७) ।
परन्तु इन विचारों से सहमत होने में कठिनाई है। प्रथमतः यदि राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय सीयक द्वितीय परमार का समकालीन था तो उसका पूर्वाधिकारी अमोघवर्ष राष्ट्रकूट सीयक द्वितीय के पिता वैरिसिंह द्वितीय का समकालीन था। यदि परमार नरेश वास्तव में राष्ट्रकूटों के वंशज होते तो सीयक द्वितीय अपनी वंशावली को पूर्वकालीन राष्ट्रकूट नरेशों से शुरू करते, न कि स्वयं के व अपने पिता के समकालीन राष्ट्रकूट नरेशों से। दूसरे, प्रस्तुत अभिलेख की पंक्ति क्र. ५ में 'तस्मिन कुले' से पूर्व कुल का नाम होना चाहिये था, परन्तु वहां केवल 'नरेन्द्रपादानां' ही लिखा हुआ है। ऐसा लगता है कि पाठ में 'तस्मिन कुले' के पहले का भाग उत्कीर्णकर्ता की गलती से लिखने में छूट गया। तीसरे, यह संभावना भी हो सकती है कि परमार सीयक द्वितीय ने किसी राष्ट्रकूट प्रदेश पर सफल आक्रमण के समय लूट में प्रस्तुत अधूरे ताम्रपत्र प्राप्त कर लिये हों और उन पर उत्कीर्ण प्रारम्भिक अभिलेख को मिटाये बगैर ही आगे अपना लेख उत्कीर्ण करवा कर दान में दे दिया हो। इस प्रकार के अभिलेखों में सीयक द्वितीय के पुत्र वाक्पति द्वितीय के गाऊनरी ताम्रपत्र हैं जिन पर मूल रूप से राष्ट्रकूट अभिलेख खुदे हुए थे (आगे अभिलेख क्र. ६ व ७)। उसने पुराने अभिलेख को मिटा कर उन पर केवल अपना अभिलेख ही नहीं खुदवाया, अपितु राष्ट्रकूट राजकीय उपाधियां पृथ्वीवल्लभ श्रीवल्लभ अमोघवर्ष भी ग्रहण की।
सर्वश्री दीक्षित व डिस्कलकर विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि यह कहना तो कठिन है कि दोनों राजवंशों का आपस में क्या संबंध था, परन्तु यह संभव है कि परमार नरेश किसी राष्ट्रकूट राजकुमारी से उत्पन्न हुए हों। जिस प्रकार कुछ वाकाटक वंशीय अभिलेख रानी प्रभावती गुप्त के कारण गुप्त राजवंशीय विवरणों से प्रारम्भ होते हैं (एपि. इं., भाग १५, पृष्ठ ३९-४४; इं. ऐं., भाग ५३, पृष्ठ ४८), इसी प्रकार परमार भी राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष व अकालवर्ष की किसी राजकुमारी से उत्पन्न हुए हों। इसी कारण प्रस्तुत अभिलेख दोनों राष्ट्रकूट नरेशों के नामों से प्रारम्भ होता है।
सम्पादकद्वय ने एक और संभावना व्यक्त की है कि सीयक द्वितीय का पितामाह बप्पैपराज राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय अकालवर्ष के गुजरात पर आक्रमण के समय उसका एक सेनापति था। बाद में प्रायः ९०० ई० के आसपास वह गुजरात के राष्ट्रकूटों से राज्य छीनने में सफल हो गया। उसके बाद वह अथवा उसका पुत्र वैरिसिंह गुजरात से मालवा में आ गया एवं इस प्रदेश में अपने वंश का राज्य स्थापित कर लिया।
यह हो सकता है कि अपनी प्रारम्भिक अवस्था में परमार राष्ट्रकूटों के अधीन थे। परन्तु जैसे-जैसे राष्ट्रकूटों की शक्ति गुजरात में क्षीण होती गई, वैसे-वैसे ही उनके राज्य पर अपना प्रभुत्व स्थापित करते चले गये। प्रस्तुत अभिलेख में सीयक की उपाधि महामांडलिकचूडामणि इसी तथ्य की सूचक प्रतीत होती है। उसकी पश्चात कालीन उपाधि महाराजाधिराजपति
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