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परमार अभिलेख
महमूद (९९९-१०३० ई.) के उपरान्त उत्तराधिकारियों में उसका पौत्र इब्राहीम (१०५९१०९९ ई.) शासक बना जिसने महमद नामक अपने पत्र को १०७५ ई. में भारत में अधिकत क्षेत्रों का राज्यपाल नियक्त किया था (केम्ब्रिज हिस्टी आफ इंडिया. भाग ३. पष्ठ ३४)। महमूद ने भारत में अपना विजय-अभियान चलाया। तलवार के बल पर उसने आगरा क्षेत्र जीता व अनेक हिन्दू नरेशों को अपने अधीन कर लिया (इलियट कृत हिस्ट्री आफ इंडिया, भाग ४, पष्ठ ५२४)। फिर उसने अपनी सेनाओं को मालवा की ओर बढाया। तत्कालीन कवि साल्मान ने महमद के इस आक्रमण का वर्णन किया है और राजकुमार को संबोधित करते हुए लिखा है--"तमने प्रत्येक प्रदेश में वर्ष की प्रचण्डतम ग्रीष्म ऋतु में आनन्ददायक स्थानों में आवास किया। इस यात्रा में तुम्हारी सेना ने एक हजार मूर्ति-मंदिरों को नष्ट किया और तम्हारे हाथियों ने सौ से अधिक किलों को पददलित किया। तुम अपनी सेना उज्जैन ले गये। मालवा थर्राया और तुम से भागा" (वही)। संभवतः इसी संघर्ष को प्रस्तुत श्लोक में ध्वनित किया गया है। परन्तु यह सिद्ध करना कठिन होगा कि परमार राजकुमार को मुस्लिम आक्रमण में कितनी सफलता प्राप्त हुई।
श्लोक क्र. ५४ के उत्तरार्द्ध में उल्लेख है--"सरस्वती के किनारे पर निवास करने के कारण जिसने अधिक वाक्चातूर्य प्राप्त कर लिया है, ऐसे वीर नरेश को बाणों के पिंजरे में बन्द कर (लक्ष्मदेव ने) चाटुकारी के शब्द सिखाये"। सरस्वती नदी स्पष्टतः पंजाब की एक नदी का नाम है जो सिरमौर अथवा शिवालिक पहाड़ियों से निकलती है, और अंबाला जिले में अदवर्दी नामक स्थान पर मैदान में प्रवेश करती है। रसूल नामक गांव के समीप यह घघ्घर नदी में मिल जाती है (ज. रा. ए. सो., १८९३, पृष्ठ ५१)। ब्रह्म संहिता (१४.१९) के अनुसार काश्मीरियों के साथ रहने वाली कीर नामक एक जाति है जो उत्तर-पूर्व के प्रदेश में निवास करती है। वैजनाथ उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि कीर नामक स्थान पर राजा लक्षमण में शासन करता था (एपि.ई..भाग १. पष्ठ १६३)। यह गांव कोट कांगडा से पर्व दूर स्थित है। इससे लगभग १०० मील दक्षिण में सरस्वती नदी बहती है। अभिलेखों में बार कीरों पर आक्रमणों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। पालवंशीय धर्मपाल (७८०-८१५ ई.) ने कीरों को परास्त किया था (गौड लेख माला. पष्ठ १४)। चन्देल नरेश यशोवर्मन ९५० ई.) ने कीरशाही से वैकुण्ठ की एक प्रतिमा प्राप्त की जो उसने भोट के शासक से ली थी (एपि.ई., भाग १. पष्ठ १२९. श्लोक ६३)। जब कल्चरि कर्ण (१०४२-१०७२ ई.) ने वी का प्रदर्शन किया तो कीर पिंजरे के तोते की भांति अपने स्थान पर ठहर गये (एपि. इं., भाग २, पृष्ठ १५, श्लोक १२)। अतः यह संभव है कि लक्ष्मदेव ने कांगडा जनपद के इन कीरों से सफलतापूर्वक युद्ध किया हो।
अभिलेख के अध्ययन से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या उदयादित्य के बड़े पूत्र व नरवर्मन के बडे भाई लक्ष्मदेव ने परमार राजवंशीय सिंहासन को सुशोभित किया था। इस संबंध में निम्नलिखित तथ्य उजागर होते हैं:
(१) प्रस्तुत प्रशस्ति में सभी नरेशों के नामों के साथ क्षितिपति, नृप, भूपति आदि उपाधि लगी हुई है, परन्तु लक्ष्मदेव के नाम के साथ इस प्रकार की कोई उपाधि नहीं है।
(२) लक्ष्मदेव का स्वतंत्र रूप से अथवा उसके समय का कोई अभिलेख अथवा दानपत्र आदि प्राप्त नहीं हुआ है।
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