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भिलसा अभिलेख
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है कि चन्द्र में चांदनी, क्षितिज में संध्या एवं मेघमण्डल में इन्द्रधनुष के रूप में सूर्य की ज्योति है। (प्राचीन भारत में निश्चित् ज्ञात था कि इन्द्रधनुष वास्तव में मेघमण्डल पर पड़ी सूर्य-किरणों की ज्योति है--मेघदूत, पूर्वमेघ, श्लोक ५) । श्लोक १० के अनुसार सूर्य की कांति पश्चिम दिशा रूपी नारी के विभिन्न अंगों को शोभायुक्त करता है। मस्तक पर तिलक, पांवों पर लाक्षाराग, कपोलों पर लालिमा एवं स्तनतट पर केसर के समान शोभायमान होती है।
श्लोक ११-१५ सूर्यदेव की शृंगार प्रियता को प्रदर्शित करते हैं । श्लोक ११ में सूर्य को संबोधित करते हए कवि कहता है कि राह तेरा नहीं चन्द्र का ग्रास करता है क्योंकि त कमलिनी के भीतर छुप जाता है। प्रेम की कैसी कुटिल गति है। श्लोक.१२ पुनः सूर्य को संबोधित है कि वह चन्द्रविकासिनी कमलिनी में उतना अनुराग नहीं रखता जितना सूर्य-विकासिनी कमलिनी में । निश्चित् ही वह नाम से विकर्तन है पर वास्तव में विकत्थन (आत्मस्तुति करने वाला) है। श्लोक १३ के अनुसार सर्य यद्यपि विभिन्न प्रेमलीलाओं में रत रहता है किन्तु दिनश्री सत्गृहणी के समान उसका नहीं छोड़ती। श्लोक १४ के अनुसार दिनश्री ने स्वयं सूर्य को वर लिया है अतः दिन भर वह उसका अनुसरण करती है। श्लोक १५ के अनुसार दिनश्री एक आज्ञाकारिणी पत्नी के समान भोर में जागती व संध्या के बाद सोती है।
__श्लोक १६-२२ में सूर्य के विभिन्न रूपों की प्रशंसा है । श्लोक १६ में सूर्य को नमस्कार है। श्लोक १७ में सूर्यकांति की प्रशंसा है। श्लोक १८ में कहा गया है कि किरण रूपी सूर्य के हाथ के स्पर्श से ही आकाश रूपी नायिका आनन्दविभोर हो जाती है तो सर्वांग मिलन पर क्या होगा। श्लोक १९ में सूर्य के आगमन के स्वागत का विवरण है। श्लोक २० में पूर्व व पश्चिम दिशाओं एवं आकाश रूपी नायिकाओं के लिये सूर्य समान रूप से प्रिय है। श्लोक २१ में सूर्य की प्रशंसा है। एलोक २२ में सूर्य के गुणों का बखान है। श्लोक २३ में उसके गुणों का समावेश व स्तुति है।
___अन्त में गद्यमय दो पंक्तियों में प्रस्तुत स्तुति के रचयिता का नाम श्री छित्तप दिया हुआ है जिसके लिये महाकवि, चक्रवर्ती एवं पंडित की उपाधियों का प्रयोग किया गया है। छित्तप द्वारा रचित ६ श्लोक भोज के सरस्वती कण्ठाभरण में, १ श्लोक कवीन्द्र वचन समुच्चय में एवं ४९ श्लोक सदुक्ति कर्णामृत में उद्धृत किये गये हैं। इससे ज्ञात होता है कि छित्तप नरेश भोजदेव का समकालीन एवं संभवतः राजकवि था। सदुक्ति कर्णामृत [३, ३६] में एक श्लोक का तीसरा चरण इस प्रकार है- "श्लाध्यः स्यात् तव भोज भूपति भुजस्तम्भ स्तुतायुद्यमः" । इससे प्रमाणित होता है कि छित्तप कवि नरेश भोज का राजकवि था।
अभिलेख के अन्त में दण्डनायक श्री चन्द्र की अनुमति से प्रस्तुत प्रशस्ति के उत्कीर्ण करवाने का उल्लेख है। वह संभवतः भोज के समय में भिलसा क्षेत्र का राज्याधिकारी था।
भिलसा नाम का संबंध सूर्यदेव से जुड़ा है। वहां पर कुछ समय पूर्व तक एक सूर्य मंदिर था जिसमें स्थापित सूर्य की मूर्ति को भल्ल अथका मैल कहा जाता था। · भैल्ल नाम वास्तव में संस्कृत शब्द भा (चमक) एवं प्राकृत प्रत्यय इल्ल (धारण करने वाला) के मेल से बना है। इसका अर्थ चमक या आभा वाला होता है जैसे भास्कर, प्रभाकर। ...
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