Book Title: Parmaras Abhilekh
Author(s): Amarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 372
________________ मान्धाता अभिलेख ३२३ पर क्षतिग्रस्त हो गये हैं। प्रस्तर खण्ड २ व ३ -पर-बायें कोनों के पत्थर टूट जाने से भी कुछ अक्षर लुप्त हो गये हैं। इसके अतिरिक्त भित्ति के पुननिर्माण में भी असावधानी के कारण कुछ अक्षर ट्ट गये हैं। परन्तु प्रो. शास्त्री ने सभी अक्षरों को स्तोत्र की हस्तलिखित प्रतिलिपि, जो गवर्नमेन्ट ओरियंटल लायब्ररी, मद्रास में ग्रन्थ क्रमांक ११२७१-११२७८ में सुरक्षित है, के आधार पर पुनः स्थापित कर दिया है। . भाषा संस्कृत है व गद्य-पद्यमय है। प्रारम्भ में ओं नमः शिवाय व अन्त में पंक्ति ५१-५६ के गद्यमय पाठ को छोड़कर सारा अभिलेख पद्य में है। इसमें ७१ श्लोक हैं जिनमें से मुख्य स्तोत्र में ६१ श्लोक मन्दाक्रान्ता छन्द में हैं। यहां कालिदास के मेघदूत की प्रणाली अपनाई गई है। केवल इतना ही नहीं, श्लोक २४-२५ एवं ५८-५९ में तो मेघदूत से कुछ अंश ग्रहण कर लिए गये हैं। सभी श्लोकों में क्रमांक दिये गये हैं। व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा, म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया गया है। ये सभी काल व स्थानीय प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ शब्द ही त्रुटिपूर्ण लिख दिये गये हैं जैसे पन्कज पंक्ति ६, सन्सार पं. ७, पुन्साम पं. ४२, सन्सक्त पं. ४५, किन्चित पं. ३९, तृदश पं. २२, निःक्रान्ता पं. २६, कृपिण पं. ४०, त्रितिय पं. ४८, निःकाल पं. ५१ आदि। इन त्रुटियों के लिये उत्कीर्णकर्ता व लेखक दोनों ही उत्तरदायी हैं। ... - अभिलेख में किसी शासनकर्ता नरेश के नाम का उल्लेख नहीं है। यह भी ज्ञात नहीं है कि वह किस वंश से संबद्ध था। अभिलेख का महत्व इसके अंतिम भाग में लिखित तिथि में है। यह अंतिम पंक्ति में संवत् ११२० कार्तिक वदि १३ लिखी है। श्री चक्रवर्ती के अनुसार वर्ष १२२० हो सकता है। परन्तु अभिलेख के पाठ को ध्यान से देखने पर अंक ११२० ही प्रतीत होते हैं १२२० नहीं। तिथि में दिन का उल्लेख न होने के कारण इसका प्रमाणीकरण संभव नहीं है। यह तिथि रविवार, २७ अक्तूबर, १०६३ ईस्वी के बराबर निर्धारित होती है। अभिलेख का प्रारम्भ ओं नमः शिवाय से होता है। इसके उपरान्त गणपति, कार्तिकेय, शिव एवं महाकाल की आराधना में क्रमशः एक-एक श्लोक क्रमांक १-४ हैं। श्लोक क्र. ५-६ में अत्यन्त विनीत भाव से कवि शिव स्तुति करने की इच्छा प्रकट करता है। श्लोक क्र. ७ में कहा गया है कि शिव के अनेकों रूप हैं । श्लोक क्र. ८ में पुनः कवि का विनीत भाव है । श्लोक क्र. ९ में शिव के आठ स्वरूपों का वर्णन है। श्लोक क्र. १० भी सामान्य है। श्लोक क्र. ११ में शिव की तुलना अर्हत् व सुगत से की गई है। श्लोक क्र. १२-१६ में कहा गया है कि शिव ही सूर्य, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास व ऋतुओं को प्रेरणा प्रदान करता है। साथ ही उसके विभिन्न रूपों का वर्णन कर भक्तों के लिए उसकी कृपादृष्टि की याचना है। आगे श्लोक क्र. ३० तक में शिव के तेज का वर्णन है। श्लोक कं. ३१-३८ में उसके विभिन्न स्वरूपों, आयुधों व निवासों का वर्णन है। श्लोक क्र. ३९-५७ में शिव की प्रशंसा है एवं कहा गया है कि वह वाराणसी व श्रीगिरी में निवास करता है। अन्त में श्लोक क्र.५८-६३ में शिव के अनुग्रह की कामना है। आगे श्लोक क्र. ६४ में लिखा है कि यह शिव स्तुति दक्षिण राढ़ीय देश के नवग्राम से आये हलायुध नामक पंडित ने रची। इसके साथ ही स्तोत्र का प्रमुख भाग समाप्त हो जाता है। इसके उपरान्त लेखक की अपनी रचना प्रारम्भ होती है जो प्रायः दूसरी स्तुति के रूप में है। श्लोक क्र. ६५-६७ में शिव के १२ प्रमुख नामों का उल्लेख है-महादेव, महेश्वर, शंकर, वृषभध्वज, कृत्तिवास, कामांगनाश, देवदेवेश, श्रीकण्ठ, ईश्वरदेव, पार्वतीप्रिय, रुद्र तथा शिव । अगले दो श्लोकों क्र. ६८-६९ में इन नामों का जाप करने वाले व्यक्ति को होने वाले लाभों का विवरण है। इससे अगले श्लोक क्र. ७० में पांच ज्योतिलिंगों के नाम हैं-श्री अविमुक्तेश्वर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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