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मान्धाता अभिलेख
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'. ४१. हे त्रिनयन, जो भक्त वाणी के अधिपति के रूप में अग्निस्वरूप जाज्वलमान शक्ति आयुध - जिनके हाथ में है, तेज से मन को दहन करने वाले रूप में आपका ध्यान करते हैं, उनके मुख से
गंगा के प्रवाह के समान गद्यपद्यमय वाणी सहसा प्रसृत हो जाती है, इसमें क्या आश्चर्य । ४२. जो उपासक दाहिने नेत्र में दैदीप्यमान ज्योतिकिरण से प्रकाशमान अरुणवर्ण सूर्य स्वरूप
उदित हुए पुरुष के रूप में आपका दर्शन करते हैं, वे जिनकी दृष्टि कहीं भी अवरुद्ध नहीं हुई
है, सूर्य पर्यन्त लोक को हस्तस्थित कन्दुक के समान अवलोकन करने में समर्थ हो जाते हैं। ४३. जो उपासक अपने हृदय में चैतन्यरूप आत्मा को जगत का आदर्श मानकर वह चित्स्वरूप
भूलोक स्वर्गलोक में व्याप्त होता हुआ ध्यान करते हैं, इस गति के द्वारा प्रगति का परिचय होते हुए करणेन्द्रिय ज्ञानरहित सर्वज्ञान को प्राप्त होते हैं।
हे शंभो, जो उपासक आपका हृदयकमल के अन्तस्थित ज्ञानज्योति रूप शालिवृक्ष के अग्र . के समान सूक्ष्म सततदर्शन करते हैं, वे संसार की समस्त उपाधियां नष्ट हो जाने से आप में
विलीन हो जाते हैं जैसे कलश का आकाश वृह दाकाश में लीन हो जाता है। ४५. हे त्रिनयन, जो उपासक तेज विद्युत प्रकाशों से, मार्ग के विश्राम लोकों से भ्रमण करते हुए,
देवयान से जाते हैं, वे स्वेच्छानुसार ब्रह्मलोक में अनुपम रसास्वाद वाले भोगों को भोग कर
अन्त में आप में लीन हो जाते हैं। ४६. ___ वह वैराग्य संज्ञक शिवपद आपके अनुग्रह से प्राप्त होता है, जहां से पंचम मार्ग के प्रसाद से
पुनरावर्तन नहीं होता, जहां परम ज्योति के प्रकाश से उत्पन्न होने वाला आनन्द स्वरूप होते रहते हैं और जहां स्वयं प्राप्त हुए दिव्य भोग भोगे जाते हैं। ___ हे त्रिनयन, जो उपासक आपके अखिल गुणों से प्रेरित आत्मा को निश्चल मन से आप में लीन निर्मल आदर्श में प्रतिबिम्बित मुख के समान देखते हैं, उन सुबुद्धिवालों का समाधिधर्म
ही मन के इच्छितार्थ को प्रदान करने वाला हो जाता है । ४८. समस्त जगतों का प्रकाश स्वरूप, परहित रूपी गुणों का स्पर्श करने वाले, ज्ञान ज्योति रूप
आप-आत्मरूप का मैं ध्यान करता हूं। जिस स्वरूप में जिनकी मति लीन हो गई है, ऐसे योगदृष्टि से अवलोकन करने वालों को यह विश्व निर्मल आदर्श में प्रतिबिम्बित के समान दिखता है।
हे भव, कूछ बद्धिहीन उन्मत्त मनष्य, जो हो गया है वह भतकालिक-स्मरण का विषय है, जो भावी है वह अन्य समय में होने वाला है, जो कुछ सूक्ष्म है, मध्य है, क्षण है वह वर्तमान ही प्रमुख है, उसी में सुख है ऐसा मान कर संसार के भय को नष्ट करने वाली आपकी सेवा का
आदर नहीं करते हैं। ५०. जानने की इच्छा के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता है, ज्ञान के बगैर ज्ञेय की सत्ता कभी भी
प्राप्त नहीं होती, इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय दोनों का व्यापक अन्योन्य ग्रथित जो स्वरूप
है वही प्रकृति स्वरूप का अन्योन्य सम्बन्धित स्वरूप अर्द्धनारीश्वरत्व है। ५१. जो स्वरूप इन्द्रियों की अशक्ति के कारण प्रत्यक्ष नहीं होता है, जिसके संबंध ज्ञान के बिना
अनुमान नहीं लगाया जा सकता, जो शब्दादिकों से वर्णन नहीं किया जा सकता, जो ज्ञान
ज्योति रूप है वह अध्यात्म स्वरूप आप ही है। ५२. हे वरद, जिनका संसार माया प्रपज्य नष्ट हो चुका है, ऐसे परमानन्द ज्ञानस्वरूप परमात्मा
को जो जान लेते हैं, वे (रजोगुणी) रागत्याग से जितमनस्क होकर छाया के दृढ़ पाशवंचन से मुक्त होकर जीवन से मुक्त हो जाते हैं।
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