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परमार अभिलेख
१६. प्रातःकाल में उदय होने वाले, आकाश में जाकर स्थिर रहने वाले, आकाश का आलिंगन
करने वाले तुझ को नमस्कार है। १७. निर्मल कपोल रूपी भित्ती पर अपने प्रतिबिंब को अवलोकन करने वाला तू आकाश देवी में दोष
की शंका कर रहा है। १८. जो आकाश रूपी नायिका केवल किरण रूपी तेरे हाथ के स्पर्श से तारों के लुप्त होने रूपी
नेत्रों को बन्द कर लेती है, वह तेरे सर्वांग मिलन पर क्या करेगी सो हमें ज्ञात नहीं है। १९. तेरे आगमन पर आकाश (रूपी नायिका के) चन्द्ररूपी कर्णफूल को पश्चिम दिशा, संध्या
कालीन लाल वस्त्रों को पूर्व दिशा, नक्षत्र रूपी हार दिन हरण करता है, तो भी तेरे स्वागत
हेतु (उनसे) भरा पात्र (भेंट में उपस्थित है)। २०. हे स्वामी सूर्य, पूर्व दिशा में उदय होकर पश्चिम की ओर जाने वाले, स्वर्ग रूपी नायिका का
आलिंगन करने वाले तेरे अनुराग का आस्वादन नायिकाओं द्वारा अनेक प्रकार से किया
जा रहा है। २१. - - - - हे सूर्य, तू महात्माओं के पुण्यों को ग्रहण करता है तो भी आकाश से उदित होने
पर शीतल-किरण नहीं हो रहा है। २२. जिस प्रकार तू बाह्य अंधकार को नष्ट करना चाहता है उसी प्रकार आन्तरिक अंधकार को
भी। तेरे उदय होते ही जैसे रात्रि नष्ट हो जाती है वैसे ही निद्रा भी। २३. द्वादश गुण सम्पन्न हे सूर्य, तेरे को बारह गुण प्रणाम नहीं कर रहे हैं । इन, अर्क, सूर्य---इन तीनों
नामों से ही तेरी स्तुति पर्याप्त है। ११. यह कृति महाकवि चक्रवर्ती पंडित श्री छित्तप की है । लेखक - - - - - १२. - - - - महाश्री मंगलकारी हो । दण्डनायक श्री चन्द्र द्वारा यह (उत्कीर्ण) करवाया - गया। छ।
(८०) मान्धाता में अमरेश्वर मंदिर प्रस्तर खण्ड अभिलेख
(हलायुध विरचित शिव स्तुति)
(संवत् ११२०=१०६३ ई.) प्रस्तुत अभिलेख चार चौकोर प्रस्तर खण्डों पर उत्कीर्ण है जो मान्धाता में अमरेश्वर मंदिर के अर्द्धमंडप की दक्षिण भित्ती में लगे हुए हैं। इसका उल्लेख लि. इं. सी. पी. ब. ही., द्वितीय आवृत्ति, पृष्ठ ४८, क्र. १५१; एपि. इं., भाग २५, १९३९-४०, पृष्ठ १७३ व आगे में किया गया।
चारों प्रस्तर खण्ड एक दूसरे के नीचे लगे हुए हैं। प्रथम प्रस्तर खण्ड का आकार ९०४ १७।। सें. मी.; दूसरे का ९४ x ३५ सें. मी.; तीसरे का ९४ ४ ३५ सें. मी. और चौथे का ९४ ४ ४।। सें. मी. है। प्रथम प्रस्तर खण्ड पर १० पंक्तियों, दूसरे पर २१, तीसरे पर २२ व चौथे पर ३ पंक्तियों का अभिलेख उत्कीर्ण है। इस प्रकार यह अभिलेख ५६ पंक्तियों का है।
चारों प्रस्तर खण्ड काफी खुरदरे हैं। अभिलेख उत्कीर्ण करने से पूर्व पत्थर को रगड़ कर ठीक से समतल नहीं किया गया। परन्तु उत्कीर्णकर्ता ने अपना काम पर्याप्त परिश्रम व ध्यान से किया है। अक्षरों की गहराई कुछ कम है जिस कारण अक्षर लंबे समय व ऋतु के प्रभाव से कई स्थानों
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