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कदम्बपद्रक अभिलेख
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अभिलेख गद्य में है । व्याकरण के वर्णविन्यास की दष्टि से ब के स्थान पर व, स के स्थान पर श, श के स्थान पर स, म् के स्थान पर अनुस्वार, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा है। कुछ शब्द ही गलत हैं जो उत्कीर्णकर्ता की असावधानी से हैं। इनको पाठ में ठीक कर दिया गया है।
अभिलेख की तिथि अन्त में अंकों में संवत् ११६७ माघ सुदि १२ है। इस में दिन का उल्लेख नहीं है। यह गुरूवार ३ फरवरी १११० ई. के बराबर है। अभिलेख का प्रमुख ध्येय नरेश नरवर्मन द्वारा उपेन्द्रपुर मण्डल के भण्डारक प्रतिजागरणक में महामांडलिक राज्यदेव द्वारा भोगे जा रहे ग्राम में २० हल भूमि, जो अलग २ समय पर तीन व्यक्तियों द्वारा दान में दी गई थी, की पुष्टि करना है।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण मध्य देश में शृंगपुर स्थान से आया कात्यायन गोत्री, कात्यायन कपिल विश्वामित्र इन तीन प्रवरों का, माध्यंदिन शाखा का अध्यायी, ब्राह्मण द्विवेद नारायण का पौत्र दीक्षित देवशर्मा का पुत्र, द्विवेद आशाधर था।
दान में दी गई भूमि २० हल थी जो दण्ड के प्रमाण से ९६ पर्व लम्बी व ४२ पर्व चौड़ी थी। यह भूमि अलग २ समय पर तीन व्यक्तियों द्वारा दान में दी गई थी:--- (१) १० हल भूमि महामाण्डलिक राजदेव द्वारा संवत् ११५४ कार्तिक सुदि १५ को स्वयं के
द्वारा भुक्त भूमि में से दान में दी गई थी, (२) ४ हल भूमि राजदेव की पत्नी (अथवा पुत्रवधू) श्रीमती महादेवी द्वारा पहले दान में
दी गई थी, और (३) ६ हल भूमि स्वयं नरेश नरवर्मन द्वारा संवत् ११५९ पौष सुदि १५ को भूतरप्रन पर्व पर
दान में दी गई थी। (एन.पी. चक्रवर्ती इसको उदगयन पर्व पढ़ते हैं)।
पंक्ति २-५ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री सिंधुराजदेव, भोजदेव, उदयादित्यदेव और नरवर्मदेव के उल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं । वंश का नामोल्लेख नहीं है।
अभिलेख में दानसंबंधी विवरण विचारणीय है। इसमें प्रथम दान संवत् ११५४ तदनुसार १०९७ ई. में दिया गया, परन्तु उसकी पुष्टि नरेश द्वारा १३ वर्ष पश्चात् की गई। इसी प्रकार स्वयं नरेश द्वारा दिया गया दान संवत ११५९ तदनसार ११०२ ई. में घोषित किया गया, परन्तु इसकी पुष्टि भी ८ वर्ष बाद की गई। निश्चित ही तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियां इस देरी के लिये उत्तरदायी रही होंगी। हमें विदित है कि दान में दी गई उपरोक्त भूमि बेतवा नदी के पश्चिमी क्षेत्र में स्थित थी जो भूभाग पहले चन्देल राज्य के अन्तर्गत भी रह चुका था। ११९३ ई. में कीर्तिवर्मन चन्देल (१०६५-११०१ ई.) ने सेनापति वत्सराज ने बेतवा नदी पर एक घाट का निर्माण करवाया था। कीर्तिवर्मन का उत्तराधिकारी सल्लक्षणवर्मन (११००१११०ई.) था जो स्पष्टतः नरवर्मन परमार का समकालीन था । संवत् १३३७ तदनुसार १२८०ई. के वीरवर्मन चन्देल के अजयगढ़ शिलालेख (एपि इं., भाग १, पृष्ठ ३२५ व आगे) से ज्ञात होता है कि सल्लक्षणवर्मन ने चेदि नरेशों के साथ मिल कर मालवों की राज्यलक्ष्मी का अपहरण किया था, जिस कारण नरवर्मन को उपरोक्त भाग में कुछ क्षेत्र से हाथ धोना पड़ा था। यह संभव है कि पश्चिमी सीमा पर नरवर्मन को गजरात के चौलक्यों से संघर्षरत रहने के कारण पूर्वी सीमा पर चन्देल नरेश का कार्य सरल हो गया हो। यह तो निश्चित ही है कि बेतवा का प्रदेश परमारों व चन्देलों के बीच संघर्ष का क्षेत्र था । सल्लक्षणवर्मन के पौत्र मदनवर्मन ने भी इस प्रदेश को प्राप्त किया था जो उसके संवत् ११९० तदनुसार ११३४ ई. के औगासि ताम्रपत्र अभिलेख से ज्ञात होता है। उस समय उसने भिल्लस्वामी (भिलसा) में ठहरे हुए एक
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