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मान्धाता अभिलेख
१३९.
श्री कण्ठेन नियुक्तेन सभायं (यां) जयवर्मणा।
चक्रे कुलक्रमा यातु(त)-विद्यत्वेन शासनम् ॥७२(७३)।। उत्कीर्णां च रु(रू)प१४०. कार कान्हाकोन (केन)।
.. अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र-पृष्ठ भाग) १. ओं। पुरुषार्थों में चूडामणि धर्म को नमस्कार ।
लक्ष्मी को दानरूप में परिणत कर जिसकी कीर्ति विख्यात हुई, जगत को त्यागने वाला, महान अनुग्रह करने वाला, सबको आनन्दित करता हुआ वह विष्णु यज्ञ करने वालों का प्रिय करने वाला हो ।।१॥
युद्धरूपी यज्ञ में उदय के द्वार रूपी कुठार को लेखनी बनाकर, क्षत्रियों के रक्त से पूरित समुद्र की स्याही बना कर, दिशाओं को पत्र बना कर, अपने अक्षरों से मनोहर शासन करते हुए उदित, जिसने ब्राह्मणों को पृथ्वी का दान किया, उस परशुराम को मैं नमस्कार करता हूं ॥२॥
समुद्र को बांधने एवं लांघने के अभिमान से उत्पन्न हुई समुद्र की दुर्बलता को अविछिन्न बहने वाले आंसुओं से शमन करने के लिए ही मानो जिसने राक्षसों का वध किया उस राम .. को मैं नमस्कार करता हूं ।।३।। .. .. ... ... ... .. . त्रैलोक्य को अपने उदर में निहित करने वाला विष्णु बाण बन कर जिसकी अंगुलियों के मध्य स्थित रहा, उस त्रिपुरारि शिव को नमस्कार है ।।४॥ .. ... . ....
जो भस्म रूपी भूमि को, गंगारूपी जल को, तृतीय नेत्र-ज्वाला रूपी अग्नि को, भुजाओं पर स्थित भुजंगों को, श्वासोच्छवास रूपी वायु को, नरमुंड रूपी माला में छिद्र रूपी आकाश को, दोनों नेत्रों के बहाने से सूर्यचन्द्र को व स्वयं को यजमान रूप से धारण करने वाला अष्टमूर्ति शिव तुम्हारा रक्षण करे ॥५॥
देवत्रय (ब्रह्मा, विष्णु, महेश), वेदत्रय (ऋक् यजु साम), अग्नित्रय भुवनत्रय (स्वर्ग, भू, पाताल) इनका आदि नाम जिसने प्राप्त किया उस ओंकारदेव को मैं नमस्कार करता हूं ।।६।।
नर्मदा गंगा की ईर्ष्या से दुखी हुई, शिवजी के स्नान के बहाने से वह भी उनके मस्तक पर स्थित हो जावेगी, इस हेतु जिस शिवजी के मंदिर के नीचे से सेवा निमित्तं बह रही है, उस शिवजी का गगनचुम्बी ओंकार नामक मंदिर प्रकाशमान हो रहा है ।।७।।
जिस ओंकारेश्वर मंदिर के शिखर के कलश से स्वर्गनगरी के ताडित होने से खलबलाहट करने वाली आकाश गंगा नर्मदा के सानिध्य से मानो क्रोधपूर्वक गंगाधरं शिवजी को उपालम्भ दे रही है ।।८।। - जहां यम के दूत प्रविष्ट नहीं हो सकते, पाप स्पर्श नहीं कर सकते, मोह की प्रचण्ड लहरें भयभीत नहीं कर सकतीं, कलियुग भी प्रवेश करने में असमर्थ है, यही सोचकर ब्रह्मदेव ने नर्मदा व कांवेरी से चारों ओर कुण्डलिनी के समान वेष्ठित इस स्थान पर महान मान्धाता नरेशं को भेजा ॥९॥ ‘श्वास छोड़ने पर दन्तान पर स्थिर पृथ्वी कहीं लुढ़क जावेंगी, न छोड़ने पर त्रिभुवन क्षुब्ध हो जावेगा, ऐसे महान संकल्प-विकल्पों से अनिर्णीत गति वाले भगवान के कण्ठ में कुण्ठित होने वाली वराह रूप धारण करने वाले कैटभारि (विष्णु) की श्वासलहरियां सुम्हारा कल्याण करें ।।१०।।
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