Book Title: Parmaras Abhilekh
Author(s): Amarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 360
________________ मान्धाता अभिलेख ३११ उसके बाद बाहु स्फुरित होने वाले जयवर्मन् का लक्ष्मी ने आश्रय लिया, जिसका आश्रय लेने से लक्ष्मी ने चंचलता के दुर्यश को त्याग दिया (अर्थात् स्थिर हो गई)॥५१।। जिस प्रकार गाड़ी के जूड़े के भार से बैल दुर्बल हो जाता है उसी प्रकार युग के प्रभाव से दुर्बल हुए धर्म को जयसिंह (-जयवर्मन्) ने तृण के समान अपना सर्वस्व समर्पण कर पूष्ट किया ॥५२॥ (तीसरा ताम्रपत्र-अग्रभाग) इस वंश में दान देने वालों में अग्रणी, सुवचन बोलने वालों में चतुर, ज्ञानवानों में जागतिशील, धर्माचरण में एकवत, विद्वान, लक्ष्मी का प्रियपात्र, एक साथ ही दौहित्र एवं पौत्र श्री जयसिंह (-जयवर्मन्) होगा, यही मान कर शिव ने अपने मस्तक पर चन्द्र एवं अग्नि दोनों को धारण किया ।।५३॥ रावण के मस्तकों से निकले हुए रक्त से दुर्गन्धित शिवजी के जटाजूट को जिस राजा ने विपुल कपूर डाल कर सुगंधित बना दिया ॥५४॥ __ विध्य पर्वत को लांघ कर समस्त दिशाओं का दमन करने वाले क्षितिपति जयवर्मन् की सेना के आक्रमण से पराजित जिनका पति प्लायन कर रहा था ऐसी दाक्षिणात्य नरेश की महीषियों ने अगस्त्य मुनि पर क्रूर कटाक्ष डाले ॥५५॥ ___ गगनचुम्बी सुवर्ण कलश शिखर वाले अनेक देव मंदिरों का निर्माण करता हुआ, ब्राह्मणों को अनेक नगर, सुवर्ण व सुन्दर करोड़ों गायें देता हुआ, विशाल तड़ागों से सरस बनाये हुए बगीचों को आरोपित करता हुआ व प्रकाशमान भूमंडल पर शासन करता हुआ जो स्थिरमति नरेश अभी भी नहीं थक रहा है॥५६॥ इस प्रकार पृथ्वी पर वह जयवर्मन् भूपति जब राज्य करता है तो स्वयं अनैतिक मुद्रा वसूली के व्यापारों को रोकता है।५७।। चाहमान कुल में क्रम से राटो राउत्त हुआ जिसके प्रचण्ड बाहुदण्डों पर जयलक्ष्मी स्थिरता को प्राप्त हुई ।।५।। उससे पल्हणदेव हुआ जो भुजाओं से दण्ड को मण्डलाकार घुमाने में उग्र था, जिसने अपने स्वामी को जयलक्ष्मी प्रदान करवा कर स्वयं को यशस्वी बनाया ।।५९।। बाद में उससे नीतिमान, सुष्ठु भुजाओं वाला पुत्र सलखणसिंह हुआ जिसने युद्धों में अर्जुनदेव को सहयोग देकर यश प्राप्ति में सहायता दी॥६०॥ .. प्रचण्ड महासैन्य वाले सिंहणदेव के सेनापति को जीत कर, मध्य में स्थित सागयराणक को स्वयं घोड़े से गिरा कर, सप्तयुद्धों में पगड़ी में लगे चामरों को छीन लिया । पश्चात् प्रीतिवश सिंह (ण) एवं अर्जुन (वर्मन्) नरेश (सलखणसिंह के इस शौर्य प्रदर्शन से प्रभावित हो) अपने अपने मस्तकों को हिलाने लगे॥६१॥ __ उससे अजयसिंह नामक पुत्र समुद्र से चन्द्रमा के समान उत्पन्न हुआ। वह कल्पवृक्ष के समान प्रमुख दानी गिना जाता था ॥६२॥ जिसने देपालपुर में मंदिर का निर्माण किया, जहां पर थके हुए शिवजी ने कुण्ड के जल के बहाने से गंगा को सामने रख दिया ॥६३।। __उसने शाकपुर में गगनचुम्बी शिखर वाले अम्बिका के मंदिर का निर्माण किया, मानों स्नेह से आकाश में विचरण करने वाले पक्षियों के विश्रांति हेतु ही बनवाया हो ।।६४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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