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विदिशा अभिलेख
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देव व ब्राह्मण को दी गई भूमि का राजा को हरण न करना चाहिये, क्योंकि वेश्या के समान यह न किसी के साथ जाती है व न ही चिरस्थायी होती है ॥ ८ ॥ ३८. यह प्राचीन मुनियों द्वारा प्रणीत वचनों की परिपाटी सुन कर उससे उत्पन्न विपुल विवेक
के उदय से माता
३९. पिता व स्वयं के पुण्य व यश की अभिवृद्धि के लिये ( दान दिया ) ।
यह जान कर हमारे वंश में तथा अन्यों में उत्पन्न होने वाले किसी भी धर्मचिन्तक नरेशों को इस धर्म (दान) को लुप्त न करना चाहिये || ९ ||
४०. दूतक मुख्यादेश है । कल्याण हो । महालक्ष्मी मंगल करे ।
४१. ये स्वयं महाकुमार श्री हरिचन्द्र देव के हस्ताक्षर हैं । श्री ।।
(५२)
विदिशा का त्रैलोक्यवर्मन् का प्रस्तरखण्ड अभिलेख ( संवत् १२१६ = ११५९ ई.)
प्रस्तुत अभिलेख विदिशा में जैन मंदिर के सामने एक निवास के मुख्य द्वार पर लगी प्रस्तर शिला पर उत्कीर्ण है । यह काफी खण्डित अवस्था में है। इसका प्रारम्भिक काफी भाग टूट गया है । इसका आकार १२६.५x९० से. मी. है । इसमें ९ पंक्तियां शेष हैं। इनमें भी पंक्ति १ प्रायः ध्वस्त है । पंक्ति २-४ के मध्य में, पंक्ति ६-८ के अन्तिम कुछ भाग क्षति - ग्रस्त हैं । इन क्षतियों के होते हुए भी अभिलेख महत्वपूर्ण है ।
इसके अक्षरों की बनावट १२वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर सुन्दर व गहरे खुदे हैं। इनकी सामान्य लम्बाई १.५ सें. मी. है । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। पंक्ति ८ में दान वाले भाग व पंक्ति ९ में तिथि वाले भाग को छोड़ कर, सारा अभिलेख पद्यमय है । इसमें १५ श्लोक विभिन्न छन्दों में हैं। सभी श्लोक सुन्दर ढंग से साहित्यिक भाषा में रचे गए हैं। श्लोकों में क्रमांक नहीं हैं ।
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व श के स्थान पर स, ख के स्थान पर ष, म् के स्थान पर अनुस्वार, अनुस्वार के स्थान पर म् का प्रयोग किया गया है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा बना दिया गया है । ये सभी काल व प्रादेशिक प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं । तिथि अन्त में संवत् १२१६ चैत्र वदि १२ है । दिन का उल्लेख नहीं है । यह बुधवार 9 अप्रेल, ११५९ ई० के बराबर निर्धारित होती है।
अभिलेख का मुख्य ध्येय नरेश त्रैलोक्यवर्मन् द्वारा विष्णु के सुन्दर मंदिर का निर्माण करवा कर उस हेतु दान का उल्लेख करना है । उपलब्ध खण्ड में प्रथम पंक्ति का प्रायः तीन-चौथाई भाग नष्ट हो गया है। इसमें लिखे जा सकने वाले अक्षरों की गणना करने पर कहा जा सकता है कि प्रथम श्लोक अनुष्टुभ छन्द में रहा होगा । दूसरे श्लोक का प्रथमार्द्ध भी नष्ट हो गया है। उत्तरार्द्ध में किसी नरेश का विवरण प्रतीत होता है । यह भी अनुष्टुभ छन्द में है। श्लोक क्र. ३ में उसी नरेश की प्रशंसा है । अगले दो श्लोकों में उसके द्वारा वराह रूपी मुरारी (विष्णु) के विशाल मंदिर के बनवाने का उल्लेख है । श्लोक क्र. ६ में उसमें विविध आयुधों से युक्त विष्णु की प्रतिमा की स्थापना का उल्लेख है । इन पंक्तियों से यह ज्ञात नहीं होता कि उक्त मन्दिर का निर्माण कहां पर करवाया गया था। फिर भी संभावना यही है कि यह विदिशा में ही कहीं पर था क्योंकि
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